वक़्त है हर शेह को सियासत सिखा रहा है,
डरता था जो आग से वोह बम बना रहा है.
छिप जाता था जो आँचल मे देख के रंग- ए- सुर्ख़,
देखो लहू के समंदर मे वो गोते लगा रहा है.
इस माहौल को किया है मैने ही ग़म- गीन,
वोह देखो मेरा चाँद समंदर मे जा रहा है.
चले जाते थे हम पार निशानों के उड़ उड़ कर,
मुश्किल से रेंगते हैं वोह सेहर याद आ रहा है.
फैलाए थे मैने पाँव चादर को नाप कर,
अब क्या करूँ वही पैर जब चादर चबा रहा है.....
वक़्त है हैर शेह को .....
.......................................सुप्रेम त्रिवेदी "विद्रोही "
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