Sunday, February 15, 2009

अभी बाकी है

कुछ कह रही है हवा रोज की तरह,
कहीं किसी कोने में फ़िर याद सी जागी है.

तेरा साथ न होने का कोई गिला नहीं,
पर तेरी दूरी का एहसास अभी बाकी है.

तुम भी देखते हो छिप-छिप कर, छिपाता नहीं है परदा,
सिलवटें कह रही हैं, इस बार तू झांकी है.

दिख जाते हो तुम, फ़िर हो जाते हो गुम,
पर रात कह रही है कुछ बात अभी बाकी है.

कुछ न बोलोगे तुम, सब जान जाऊँगा मैं,
खामोशी कह रही है, अल्फास अभी बाकी है.

झूठ कहती है दुनिया कि मुझे मौत आ गयी है, मैं जानता हूँ मैं जिंदा हूँ,
क्यों के तेरे सीने में कुछ साँस अभी बाकी है.

aabaad....

हमारे बचपन के अन्धविश्वास

हमारे बचपन के अन्धविश्वास

खैर मेरे और आपके अंधविश्वासों में ज़मीन आसमान का फरक हो सकता है, नंबर एक तो मैं कोंवेंट एजुकेटेड नहीं हूँ. अपनी जिन्दगी की शुरुआत ही पाटी-बुदिका से हुई थी, फटी हुई हाफ पैंट और टेरीकोट की नई बुशर्ट गले में तख्ती और हाथ में सेंठे की कलम से छोट कर जब हम शहर आये तो माहौल ही एक दम नया था. because की spelling याद करने में हमने इतना समय लगा दिया की अंडे में से चूज़े मिकल आयें. और फिर दौर आया नया ज़माना नया ... नए स्कूल में हमने अपने बचपन के ज़हीन अंधविश्वासों से सामना किया...

१. पेंसिल की छीलन को सहेज कर रखना. उसे इकठ्ठा करना. और एक दिन उसे दूध में डाल कर उबालना. ऐसा करने से रबड़ बन जाती है. न जाने किनी ही पेंसिलें हमारे इस प्रयोग की कुर्बानी चढ़ गयी. और न जाने कितने ही तमाचे हमारे गलूँ पर जड़ गए...

२. पांच या दस के सिक्के को रेल की पत्री के नीचे रख देना तो वो चुम्बक बन जायेगा. कसम से कभी रेल की पटरी ही नसीब न हुई.

३. और वो बच्चे उठाने वाला बाबा उसे न तो आज तक किसी ने देखा और न देख पायेगा..शायद मेरी मां के सिवा.