Saturday, December 25, 2010

बीमार इस लाइलाज के फ़क़त एक हम नहीं.

निशानात पांवों के दो दर्ज हैं,
सहरा में अकेले हम ही हम नहीं.

हवाएं औसत से ज्याद गर्म हैं,
ये आहें हमारी अकेले नहीं.

बात तुम खूब कहते थे, कहते हो, कहते रहोगे,
चुप रहना यूँ हमारी भी फितरत नहीं.

न ओढ़न, न बालों, न पैरहन का सलीका,
सामाँ हमारे भी बिखरे कम नहीं.

ये छुप के रो लिए, वो मुंह धो के सो सो लिए,
पलकें हमारी भी कुछ कम नम नहीं.

हकीकत में ही जिला सकता तो तसवीरें बनाता क्यों खुदा,
खरीदार ख्वाबों के भी कुछ कम नहीं.

नज़्म लिखते हम हैं, पढ़ते तुम हो, बिकने दूर तक जाती हैं,
बीमार इस लाइलाज के फ़क़त एक हम नहीं.

Saturday, December 18, 2010

होने तक

किसी ने ज़ुल्फ़ को शाम कहा, किसी ने आँखों को समंदर,
मैं तुझको तुम ही लिख न सका, ये कलम फ़ना होने तक.

शिकायत चोर ने ज़ाहिर से की, सिपाही ने कोतवाल से,
वो मुझपे इलज़ाम ही लगाते रहे, फैसला होने तक.

शाम फिर दिन ढले ही आई, डाक-घर की बत्तियां भी जलीं,
मैं कुरेद कर ज़ख्म ही सुखाता रहा, सुबह होने तक.

जन्नत में सवाल बहुत हैं, दोज़ख में जगह कम है,
मुझे सलीब* पर ही रहने दो, आसरा होने तक.

Thursday, December 9, 2010

कच्ची कविता

समय का अभाव कहें या विचारों में लगी दीमक, लेकिन ग्रसित तो हूँ मैं इस समस्या से. अर्सा हुआ और कोई अपडेट भी नहीं आया. ऐसी शिकायतों से आजिज़ आ कर कुछ छापना पड़ रहा है. माल पुराना है, तकरीबन दस एक साल. लेकिन तब हमें "माल" लगता था. और ये ज़रूरी भी है, दो-चार विजिटर्स जो बचे हैं, उन्हें बचाने के लिए, और ये बताने के लिए कि - "त्रिवेदी मरा नहीं, त्रिवेदी मरते नहीं" :-)
कुछ एक चाहने वाले कोडर भाइयों का कथन है कि मुझे एक "तकनीकी - चिट्ठा" भी लिखना चाहिए. तो खैर काम चालू है, कच्छप गति से ही सही, पर है चालू. "त्रिवेदी रुका नहीं, त्रिवेदी रुकते नहीं" :-).
तब तक आनंद लें कच्ची कविता का, ठूंसे हुए अलंकारों का, और चालू तुकबंदी का. उम्मीद है नया साल कुछ नया लेकर आयेगा...

तुम ही मेरी कविता हो, इस निर्जल में सरिता हो,
तम हृदय जिसे सहेजा, उष्ण वही सविता हो,
तुम ही हो जिसके कम्पन पर, थिरकी थी यह लेखनी,
वे तेरे ही स्वर थे, फिरकी थी जिन पर रागिनी,
 उस शब्द-बाण के स्वामी तुम थे, जिसने भेदा था हृदय मेरा,
वह अलख निराली तेरी थी, तपता था जिसमें कुन्दन,
वह तुम ही थे जिसने अन्जाने में झंकृत किये तार तन
सप्तपर्णा, शीत-स्वर में वह तेरा आह्वान था,
मैं न जिसको समझ सका, उफ़! कितना अन्जान था,

कितना तुझमें दैन्य था, और कितना था आवेश,
मर्म न तेरा समझ सका, तुम बदले थे वेश,
यदि समक्ष आ गए होते, तुम चक्षु-चपल-चर-के-चल में,
छवि सहेज कर रखता तेरी, युग-युग तक अंतर्मन में.

कविता मेरी बुनी पड़ी, है हुई लेखनी जाम.
तुम दिखते हो मुझको अपलक एकटक अविराम.

Monday, August 2, 2010

गाँव

दूरी कम , राह बड़ी, पर चल निकले हैं तय करने को,
इधर नदी है सूखी-सिमटी, उधर हमारी पड़ी नाव है.

बची रौशनी बुझी पड़ी है , सिगर रंग भी फीक चले हैं,
रुकते चलते, चलते रुकते जाना अपने बड़े गाँव है.

रात जमे कब, रब ही जाने, झींगुर कब गाने पाएंगे,
घिसट-घिसट कर दिन भर बीता, शाम की छत पर बड़ा घाम है.

तुम मंदिर में सुस्ता लेना, तुम मस्जिद में डेर जमाना,
मैं थोड़ा बगिया तक हो लूं, उधर हमारे बड़ी छाँव है.

तख्ती ले लो, हाथ गुदा लो, लो पर्ची पहचानों की,
हम जायेंगे हाथ हिलाते, वहां हमारा बड़ा नाम है.

.........................सुप्रेम त्रिवेदी

Monday, May 24, 2010

मेरे घर की टूटी खिड़की से

मेरे घर की टूटी खिड़की से, कुछ-कुछ धूप भी आती है कुछ-कुछ छाँव भी आती है.
अब तक वो शहरों में गुम थी, घने चार पहरों में गुम थी,
वो उजली सी, वो बिजली सी, सीमित वन में नहीं कदाचित,
मेरे गाँव भी आती है.
मेरे घर की टूटी खिड़की से, कुछ-कुछ धूप भी आती है कुछ-कुछ छाँव भी आती है.

हो मंगल का मेला, या जुमेरात की रात कव्वाली,
सीपी-शंख की मेलें छन-छन, झांझर-झुमके, बुर्के वाली.
क्रंदन कोलाहल बच्चों का, समझ सयानी शर्म की लाली.
चपल भागती कभी सरापट, झिझकी कभी, कभी कदाचित,
दबे पाँव भी आती है,
मेरे घर की टूटी खिड़की से, कुछ-कुछ धूप भी आती है कुछ-कुछ छाँव भी आती है.

गिरजाघर के घंटे टन-टन, जगराते की रात का मजमा,
भजन कीर्तन ढपली ढोलक, साखी सबद रमैनी अबतक,
कभी जगद-आरती जगदम्बा की, कभी अफ्तारी का घोष कदाचित, कभी
भोर अज़ान भी आती है.
मेरे घर की टूटी खिड़की से, कुछ-कुछ धूप भी आती है कुछ-कुछ छाँव भी आती है.

Thursday, April 1, 2010

भरवाँ भिन्डी

मुझसे और मेरी लेखन शैली से परिचित लोगों को शायद ये विषय अटपटा सा लगे, या शायद ये भी हो सकता है कि कुछ लोग कुतूहलवश यह जानना चाहें कि कहीं मैं पाक-शास्त्र पर पारंगत होने ही तो यूं ही इतने समय से गायब नहीं रहा. न छिट्ठी, न पत्री, न तार, बेतार, न अता न पता और न ही विधिवत या स्फुट लेखन. और गाहे-बगाहे लौटा भी तो भिन्डी लेकर और वो भी भरवाँ....

वैसे मेरे जीवन चक्र कि गति इतनी वक्रीय, और कोणीय वेग इतना अनियत रहता है कि अभिकलन के तमाम सूत्र धत्ते से रह जाते हैं. खैर आत्म-लोकन मोड से मुद्दा मोड पर आते हैं. पिछली बार मैगी-वंदना से काफी देसी भावनाएं आहत हो गयी थीं और उनका कहना था कि ये सम्मान किसी स्वदेशी पकवान को मिलना चाहिए. अब स्वदेसी फास्ट फ़ूड तो होते नहीं और अधिकाधिक कुछ हुआ भी तो वो होगा डब्बाबंद तथाकथित करी(curry). तो पाक कला के क्षेत्र में स्वदेशी तरीके से की गयी हर हिमाकत को मैं पकवान कहता हूँ. अब पौने दो किलो तरकारी, डेढ़ मग बहते पानी में धुलकर, तिहत्तर मसाले डाल कर, और सवा दो तरीके से पका कर कोई फास्ट फ़ूड तो हरगिज़ न बनाएगा. वैसे इस सवा दो तरीके से पकाने के विषय में विद्वानों के कुछ मतभेद हैं और जिन बदनसीबों का हाथ पाक की महान कला में तंग है उनकी जानकारी के लिए यहाँ पर बताना अज़रूरी होगा कि पकाने कि भी रंगारंग विधियाँ हैं. जैसे कि भाप देना, उबलना, तलना, छौंकना, आंच देना और भून कर जला देना. इसमें से कर विधि का अपना रंग है जैसे कि भाप देने पर प्राकृतिक रंग कि प्रकृति नष्ट न होने पावे अथवा भून कर जलने पर जलायमान वस्तुएं अपनी अपनी प्रकृति को त्याग कर एकायमान, एकीकृत हो कर एक तत्त्व हो जाती हैं.

यहीं पर भिन्डी, माफ़ कीजियेगा भरवाँ भिन्डी बाकी पकवानों को मात देती नज़र आती है,

अव्वल तो ये की ये एक हरी सब्जी है और मम्मी त्रिवेदी का कहना है कि हरी सब्जी स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होती है.
इसे बनाने में तमाम मानवीय मूल्यों एवं विशेषणों का भरपूर परीक्षण होता है. जैसे कि अनुमानन की कला, धैर्य, साहस एवं अवसरवादिता और हाँ यदि भारी स्पेटुला अर्थात करछुल का उपयोग किया जाये तो ये कसरत के काम भी आती है.
भरवाँ भिन्डी के रस्ते का मुख्य पड़ाव है -उसका मसाला बनाना. इसके लिए तीन भाग धनिया पिसा, दो भाग हल्दी, दो भाग पिसी सौंफ, दो भाग अमचूर लें, उसमे नमक और मिर्च स्वादानुसार मिलाएं, और हाँ कलौंजी न भूल जायें. और हाँ इन्हें आपस में मिला कर इतना बारीक कर लें की आपके हाँथ दर्द होने लगें.
उपरोक्त तरीके से मसाले बनाने के कई फायदे हैं, सबसे बड़ा जो मुझे समझ आता है वो है इससे भारत में साक्षरता बढ़ेगी. क्योंकि इतना सामान बिना कागज़-कलम याद रखना तो संभव नहीं लगता. और आपके अनुमान, धैर्य और साहस का परीक्षण भी हो ही चुका है.

भरवाँ भिन्डी के लिए भिन्डी काटना भी एक कला है. ज़रा सा ऊँच नीच हुआ नहीं की बन गयी वो टुकड़ा भिन्डी. भिन्डी कट भी जाये और पता भी न चले. तब तो हुई बात-ए-तारीफ. यानि के टेस्ट हो गया आपकी सुश्पष्टता की कला(art of precision) का भी.

अब आती है बारी मसाला भरने की और इस कला का भरवाँ भिन्डी के क्षेत्र में वही महत्व है जो की उत्तर प्रदेश बोर्ड की परीक्षा में हैण्ड-राइटिंग का. मसाला बना चाहे जितना जानदार हो पर जब तक वो सही से, खूबसूरती से और सफाई से भरा न जाये, मास्टर-साहब नंबर नहीं देंगे.

और अंततः बारी आती है उसे तलने की. इसे धीमी - धीमी आंच पर देर तक सेकना चाहिए, जब तक भिन्डी का रंग भूरा न हो जाये और आपके माथे से पसीने की पहली बूँद न टपक जाये. भिन्डी पूरी तरह तैयार होने के पश्चात एक भीनी सी सुगंध छोडती है. (सौंफ के भूने जाने की) जिसे सूंघ कर आप तुरंत अपने लिविंग रूम से उठ कर रसोई में पहुँच जायें. मस्ती से भिन्डी खाएं.

और हाँ बर्तन मेरे लिए छोड़ दें , आखिर मुझे भी तो कुछ काम करना है.

इति सिद्धम - कि भरवाँ भिन्डी बनाने ,खाने एवं बर्तन धोने से आपका बहुमुखी विकास होता है.... धन्यवाद, जय हिंद , जय भारत..

Friday, January 1, 2010

नए साल में

उधर सुना था कोई,
मांग रहा था नयी सुबह नए साल में, उज्ज्वल धरती,
अप्रदूषित जल, गुनगुनी धुप और खुशहाल चहरे.
बे-इमान रहा होगा,
या फिर बीमार. बीमारी भी ऐसी लाईलाज जो दोहराती है हर साल,
लौट आती है हर बार
इसी दिन.
गजब बीमारी, बीमारियों में बीमारी, बीमारी उम्मीद की.
पार साल मैंने तो इलाज करवा लिया था.
महंगा था, मुश्किल भी.
पर बीमारी भी तो फंनेखां कम कहाँ थी.
अब कहाँ आते हैं मुझे सपने, खुशहाली के, रौशनी के, धूप और चांदनी के.
और अनजान खून देख के कुछ महसूस भी कहाँ करता हूँ मैं.
जैसे उस दिन के ढाई सौ, जब मैं सिनेमा देख रहा था.
या उस दिन के सौ, जब मैं बॉस से प्रमोशन की बात कर रहा था.
या उस दिन के तिरसठ, जब तेरी गोद मैं चाँद सितारों से भर रहा था.
या उस देर रात की पार्टी वाले सात.
लेकिन फिर भी,
खुदा ज़रा मौतें कम कर दे नए साल में
इस साल टीवी में कुछ नया देखने का मन है बस.
..................................सुप्रेम