Sunday, September 13, 2009

चूरन वाले बाबा

चूरन वाले बाबा

शायद आखिरी बार मैंने उन्हें तब देखा था जब मैं कक्षा छः में था. उम्र शायद उनकी रही होगी साठ से पैंसठ के बीच पर जिन्दगी, दुपहरी, धुंए और बीमारी ने जी तोड़ कोशिश की थी की वो पचहत्तर-अस्सी से कम के न दिखें. एक छोटी से संदूकची, जिसमे ताला लगाने की कोई ज़रुरत न थी, ताले की कुंडी और उसके आसपास का इलाका जंग ने वैसे ही गला दिया था जैसे जिन्दगी ने उनके शरीर को, उसे वो अपने सर पर रखकर अक्सर छुट्टी के समय आते दिखते थे.


वैसे उस ज़माने में भी सोफिस्टीकेशन की बयार चल सी निकली थी. पारंपरिक स्कूली ठेलों की, जहाँ पहले कमरख, कैथा, जामुन और लैय्या-चना मिलता था. वहां पैक्ड-फ्रूट और क्वालिटी की रेफ्रिजेरेशन-यूनिट्स खड़ी मिलने लगना शुरू हो चुकी थी.


शायद इसी से चूरन वाले बाबा अनभिज्ञ थे, की अब वो बच्चों के लाडले नहीं रहे और उनका ज़माना उनकी उम्र की ही तरह ढल गया है. मैं शायद तब तक समझदार हो चुका था. इतना कि खुली और सूखी आँखों में विभेद कर सकूं. मैं हमेशा उनसे चूरन खरीदता था. हालाँकि मुझे चूरन पसंद न था. न ही उनकी खट्टी-मीठी गोलियां. लें उसे खरीदने के बाद सो संतुष्टि मुझे मिलती थी और वो उनके आँखों की चमक मुझे बड़ी अच्छी लगती थी. एक रुपये में चार पुडियाँ खट्टा-मीठा काला-लाल गोलियां और मीठी सौंफ. न जाने कितना ही सामान बेच जाते थे वो एक रुपये में... और हर रोज़ ही मुझे लगता था की कल वो आएंगे या नहीं...

खैर
वो दिन तो बीती हुई बातें हैं, वो स्कूल वो छुट्टी वो घंटियाँ ... वो रास्ते ... सब कुछ ... पर कहीं कुछ रह सा गया है...क्या हुआ उन चूरन वाले बाबा का ... कहीं एक उडती उडती बात भी सुनी थी की उनके अमीनाबाद में कई मकान हैं...और उनके लड़के बच्चों ने ही की थी उनकी ये दुर्गति ... मैं सोचता था बड़ा होगे उनके बच्चों से उन्हें इन्साफ दिलाऊँगा .. खैर मर गया वो मुंसिफ भी और वो इन्साफ का मसीहा भी ... दुनिया की इस रेलमपेल में ... खैर बाबा मुआफ करना ....

Sunday, July 19, 2009

मुझ पर जितने वार करोगे, मैं मरकर हर बार लिखूंगा.

रचयिता को विषयों का आभाव तो चिर काल से रहा है. और जिस गति से हम विषयों को खा रहे हैं, लाजमी हैं की कवि विद्रोही हो जाये. अरे तुमने उसकी नदी को मार दिया, उसके फूलों से हंसी छीन कर उन्हें एक भूखा पापी पेट दे दिया, और भूख मिटने को दे दीं लोहे की खून से सनी गोलियां. उसकी ज़मीन पर तो कहीं रेखा नहीं खिँची थी....तो मजबूरी में उसे ये लिखना पड़ रहा है.. आनंद लें पर सिर्फ आनंद न लें...खैर बड़े दिनों बाद कुछ निकला है क्या कहते हैं अंग्रेजी में उसे straight from the heart. इस पर मुझे प्रतिक्रियाओं का लालच अवश्य है...तो इंतज़ार रहेगा प्रतिक्रियाओं का.....


अगर यूँ ही कुछ लिखने को न मिला तो क्या ये कलम दम तोड़ देगी,
मैं शायर हूँ, कहीं-कहीं से, कुछ ढूंढ-ढूंढ कर लाऊँगा,
चिलमन कोई जला दूंगा, बीडी कोई बुझाऊँगा,

कुछ सिमटी रातें तह करके, रख दूंगा अलमारी में
सारी बारिश सुखा-सुखा कर, सागर तुझे डुबा दूंगा.

बंद करूंगा सूरज तुझको सात कड़ी के तालों में,
चाँद तुम्हारे रेशे ले कर खद्दर नयी बनाऊंगा.

प्रेम लिखूंगा वार लिखूंगा, अर्दप अत्याचार लिखूंगा,
फूलों से खुशबू ले लूँगा, काँटों पर बलिहार लिखूंगा.

खंडहरों में जमा के महफिल, शीश महल-यलगार लिखूंगा.
लैला से शोखी ले लूँगा, मजनू को व्यापार लिखूंगा.

चारू-चन्द्र की तिरपन किरणे, छीन भरूँगा डिबिया में.
सरहद को बंदी कर दूंगा, फिर उस पर उस पार लिखूंगा.

घर चौबारे एक करूंगा, को सूरज मद्धम कर दूंगा,
जहाँ-जहाँ पर भीड़ लगेगी, सबको निर्जन थार लिखूंगा.

तरुवर को फलहीन करूंगा, सरवर होंगे रक्त-पिपासु,
दो तलवारें एक म्यान में, एक नहीं सौ बार लिखूंगा.

एक अकेली मछली, सब तालाबों को साफ करेगी,
निरीह चने को साथ बिठाकर, फूटे सारे भाड़ लिखूंगा.

राजा के जालिम प्रहरी को, जीवन-मित्र बना दूंगा,
ओ लटके फाँसी के फंदे, तुझको विजयी हार लिखूंगा.

मृत्यु को जीवन गीत बताकर, घुल कर हवा में बह जाऊँगा,
मुझ पर जितने वार करोगे, मैं मरकर हर बार लिखूंगा.

..........................................................सुप्रेम त्रिवेदी "आबाद" उर्फ़ "बर्बाद"

Wednesday, July 15, 2009

फिर रो-रो के दुपट्टे को भिगोता क्यूँ है.

मैं तो आखिरी ख़त भी वहीं छोड़ आया था,
फिर ये कत्ल का इल्जाम मुझ पे लगा क्यूँ है.

आवाजें तो दफ्न हो गईं थी सब उस दिन,
गली के आखिर में फिर ये शराबा क्यूँ है.

सो गयी रात, ताउम्र, सुन कर वो आखिरी हरफ,
बेशर्म चाँद आज फिर निकला क्यूँ है.

दुहाई को रिश्तों की कीमत अदा तो कर दी थी पूरी,
सारा शहर फिर तिजारत पे निकला क्यूँ है.

वो कहता है की बाकी नहीं है याद कोई सीने में,
फिर रो-रो के दुपट्टे को भिगोता क्यूँ है.

.....................................................suprem trivedi "aabaad"

Sunday, February 15, 2009

अभी बाकी है

कुछ कह रही है हवा रोज की तरह,
कहीं किसी कोने में फ़िर याद सी जागी है.

तेरा साथ न होने का कोई गिला नहीं,
पर तेरी दूरी का एहसास अभी बाकी है.

तुम भी देखते हो छिप-छिप कर, छिपाता नहीं है परदा,
सिलवटें कह रही हैं, इस बार तू झांकी है.

दिख जाते हो तुम, फ़िर हो जाते हो गुम,
पर रात कह रही है कुछ बात अभी बाकी है.

कुछ न बोलोगे तुम, सब जान जाऊँगा मैं,
खामोशी कह रही है, अल्फास अभी बाकी है.

झूठ कहती है दुनिया कि मुझे मौत आ गयी है, मैं जानता हूँ मैं जिंदा हूँ,
क्यों के तेरे सीने में कुछ साँस अभी बाकी है.

aabaad....

हमारे बचपन के अन्धविश्वास

हमारे बचपन के अन्धविश्वास

खैर मेरे और आपके अंधविश्वासों में ज़मीन आसमान का फरक हो सकता है, नंबर एक तो मैं कोंवेंट एजुकेटेड नहीं हूँ. अपनी जिन्दगी की शुरुआत ही पाटी-बुदिका से हुई थी, फटी हुई हाफ पैंट और टेरीकोट की नई बुशर्ट गले में तख्ती और हाथ में सेंठे की कलम से छोट कर जब हम शहर आये तो माहौल ही एक दम नया था. because की spelling याद करने में हमने इतना समय लगा दिया की अंडे में से चूज़े मिकल आयें. और फिर दौर आया नया ज़माना नया ... नए स्कूल में हमने अपने बचपन के ज़हीन अंधविश्वासों से सामना किया...

१. पेंसिल की छीलन को सहेज कर रखना. उसे इकठ्ठा करना. और एक दिन उसे दूध में डाल कर उबालना. ऐसा करने से रबड़ बन जाती है. न जाने किनी ही पेंसिलें हमारे इस प्रयोग की कुर्बानी चढ़ गयी. और न जाने कितने ही तमाचे हमारे गलूँ पर जड़ गए...

२. पांच या दस के सिक्के को रेल की पत्री के नीचे रख देना तो वो चुम्बक बन जायेगा. कसम से कभी रेल की पटरी ही नसीब न हुई.

३. और वो बच्चे उठाने वाला बाबा उसे न तो आज तक किसी ने देखा और न देख पायेगा..शायद मेरी मां के सिवा.

Thursday, January 22, 2009

और मेरी आवाज़ दबी है.

आंसू झर-झर बह निकले हैं,
सन्नाटों में साँस रुकी है,
गला रुन्ध्र है लहू झलकता
और मेरी आवाज़ दबी है

अंजानो के इस जंगल में
सारे साथी रात सो गए
मुट्ठी भींची, शक्ति समेटी
तब तक मेरे हाथ खो गए
दीपक दिखता नखत चमकता
सन्नाटों में साँस रुकी है
गला रुन्ध्र है लहू झलकता
और मेरी आवाज़ दबी है.

सुन सकते हो सुनते जाओ
रुक सकते हो रुकते जाओ
हाथ बढ़ाता हाथ न आता
मैं कुछ चलता कुछ रुक जाता
कहने सुनने के झंझट में
जो कहनी थी बात रुकी है
गला रुन्ध्र है लहू झलकता
और मेरी आवाज़ दबी है.

Sunday, January 11, 2009

आज रात मैं नींद से जागा...

कुछ भूल सा गया हूँ या .. अगर सही से याद हो किसी को या २००४ की 'सृजन' हो किसी के पास तो इसे सही करने में मदद करें

आज रात मैं नींद से जागा, भाग्य उदय कर उठा अभागा.
कल का दिन कुछ याद नहीं है, खोया-पाया ज्ञात नहीं है.
धड़कन दिल से दूर गयी थी, स्मृति मुझको भूल रही थी.
शरण मुझे रणभूमि ने दी थी, गोला उस गुल-आब ने दागा.
आज रात मैं नींद से जागा....

सपने मेरे टूट चुके थे, अपने मेरे रूठ चुके थे,
जीवन झूला झूल रहा था, अपने पथ को भूल रहा था,
अर्घ्य मेरा स्वीकार हुआ ना, ख़ुद पर भी अधिकार हुआ ना.
गाड़ी मेरी छूट रही थी, कोशिश कर पुरज़ोर मैं भागा.
आज रात मैं नींद से जागा....

गुलशन तपती रेत हो गए, पुष्प काल की भेंट हो गए,
चक्रवात ही चक्रवात थे, बांधे मुझको मोहपाश थे.
सब थे मिलकर नाच नचाते, नए नए थे खेल रचाते.
फ़िर टूटा कठपुतली धागा,आज रात मैं नींद से जागा...

जाग गया हूँ सोऊंगा न, प्राप्त किया खोऊंगा न ,
तरकश का निर्माण करूंगा, अब उसमे हर बाण रखूंगा,
हाँ मैंने हर आंसू त्यागा, आज रात मैं नींद से जागा.
....................... सुप्रेम त्रिवेदी "आबाद"