Sunday, December 21, 2008

ये शायर की ज़बानी है, लहू से रंग लाती है.

तो क्या कर रात है काफी, अँधेरा जीतने वाला,
हमारे घर के आँगन में अभी भी धूप आती है.

उधर जल्लाद बैठे हैं, ये बस्ती दोज़खों की है,
हमारे आंसुओं से घंटियों की गूँज आती है.

कोहरा है घना और सर्दियाँ जमा देने ही वाली हैं,
ये अपनी आहें हैं जो गर्मियां बन खूब आती हैं.

चढा देना वो सूली पर या सीना चाक कर देना,
ये शायर की ज़बानी है, लहू से रंग लाती है.

...................................... सुप्रेम त्रिवेदी "आबाद" 01:46 GMT

Saturday, December 13, 2008

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ये कविता मैंने काफी पहले लिखी थी तकरीबन आठ एक साल पहले शायद फरवरी २००० mein. तो भाषा में बचकानापन हो सकता है. हो सकता है ये तथाकथित काव्यगत मानको पर खरी भी न उतरे. लेकिन विचार और विद्रोह में कहीं से कम नहीं है. aur Reference to the context इससे बेहतर सच कहूं तो लिख ही नहीं पाया. शायद आग बुझ गयी है या विद्रोह पीडा में बदल गया है. लेकिन एक बात है ज़िंदगी बड़ी है और दुनिया गोल. So friends it is not over till its over. पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त...Till then enjoy the raw thoughts..
कभी देखता हूँ दिन के उजाले में, अन्दर नाक़ाब ए काले में,ज़माने को दिया जलना सिखाते हैं, अपने घर में कालिख बनाते हैं,
दो मीठे बोल को तरसे हम, उगलेंगे सब ही ज़हर खरा,थोड़ी सी मिल जाये छूट, खा जायें नोच कर कटा मरा,
अंधेरो के खेत सींचते, बन्दूंको से ख्वाब उगाते,आग बुझाने का धंधा करते, अन्दर जिनके तेजाब भरा,
हर घर की छत पर आग लगी, चिमनी से नज़रदराज़ धुंआ.खाते थे पका कर रोटी जहाँ, खोदा है वहां लाशों का कुआँ.
.....................सुप्रेम त्रिवेदी "आबाद"

Wednesday, November 19, 2008

पता नहीं क्यों?

पता नहीं क्यों?
ये कहानी है और इसे कहानी की तरह पढ़ें. न तो मैं बदकिस्मत हूँ और न ही किसी बदकिस्मत को जानता हूँ. इसके सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक हैं. यदि मेरे परिचितों में से किसी को ये कहानी उसकी या मेरी ज़िंदगी से प्रेरित लगती है तो ये मात्र एक विडम्बना है और उसकी बदकिस्मती. ज्ञानी लोग ऐसी बदकिस्मतियों को इत्तेफाक भी कहते हैं.........

कभी कभी मुझे लगता है पता नहीं क्यों मैं सिर्फ़ हारने के लिए बना हूँ? मतलब भला बताइए दोष आख़िर दें तो किसे दें? भगवान को कोसें कि किस्मत को भला-बुरा कहें या फ़िर दोष मढ़ दें अपने आस-पड़ोस, यार-दोस्त, प्रिय-प्रियदि आदि-इत्यादि पर.

कभी-कभी मेरे दिल मैं ख़याल आता है कि कोई इतना बदकिस्मत हो भी कैसे सकता है मतलब कोई upper limit नाम की भी चीज़ होती है. लगता है भगवान ने मेरा ये वाला counter infinite सेट कर दिया है. बेटा लगाये रहो लूप पर लूप फेल नहीं होने का. निश्चित ही भगवान ने जिस coder को मेरी किस्मत लिखने का contract दिया होगा उसकी उस दिन की बिलिंग नहीं हुई होगी. या फ़िर ये कोई inherent legacy bug था लो टेस्टिंग तो सारी पास कर गया पर प्रोडक्शन में आकर फ़ेल हो गया और बदकिस्मती से वो प्रोडक्शन-environment मेरी ज़िंदगी है.


इंतिहा ये है की अगर मैं दौड़ में दौड़ भी न रहा हूँ तो भी हार जाता हूँ. क्यों गया देखने साले ले भुगत?मतलब खेल रहें हैं फ्रांस-जर्मनी, मैच हो रहा है हजारों मील दूर, हारता कौन है मैं? ले बे और देख टी.वी?

कुछ लोग अपने पाँव पर कुल्हाडी मारते हैं, कुछ महान लोग कुल्हाडी पर पाँव मार लेते हैं. मैं भैय्या क्या करता हूँ सुनो. पहिले मैं अपने पाँव पर लगा सेफ्टी कवर काटता हूँ. फ़िर लकडी ढूंढता हूँ. कहीं नहीं मिलती तो जंगल जाता हूँ सर फुटा, के हाँथ टुटा के वहां से लकडी लाता हूँ लोहे का जुगाड़ करता हूँ. धौंकनी पर बैठ कर लोहारमय हो कर दिन रात एक कर के एक कुल्हाडी बनाता हूँ फ़िर बड़े प्रेम से धीमे-धीमे अपना पाँव काटता हूँ की बेटा पाँव तो कटे ही कटे पर नासूर भी बने.


मतलब बताइए की ये कहाँ का न्याय है? स्कूल से लेकर कोलेज तक, घर से लेकर मोहल्ले तक नौकरी से ले कर छोकरी तक जब कुछ बुरा होना होता है पता नहीं कैसे मैं उसे ढूंढ लेता हूँ.


मेरे पिताजी की मोटर-साईकिल, चम्-चमनुआ झकास एक दम बारह साल से फटाफट दौड़ती थी. छींक तक नहीं आयी उसे कभी, या कभी तेल तक ज्यादा पिया हो. लेकिन उसे ख़राब होना था .. और मौत भी लिखी थी उसकी उसकी उस दिन जिस दिन हमारा जे.ई.ई. मेंस का पेपर था. कभी नहीं बैठे हम उस मोटर-साईकिल पे. लेकिन पता नहीं क्या सूझी उस दिन "मम्मी आज ये ले जाता हूँ. पापा की बाइक लक्की है!!" ले बेटा लक!!

कृमशः..

Sunday, October 26, 2008

कहाँ होगी

इस समंदर में तो सूखी नदियाँ ही मिलेंगी,
बर्फ उन पहाड़ों पर पिघली कहाँ होगी।

कल फूल मुरझाये थे, आज काँटे भी झड़ गये,
खुदा जाने वो आख़िरी तितली कहाँ होगी।

पेट की आग ने हर चिंगारी को बुझा देना था,
फिर चीख इंकलाब की निकली कहाँ होगी।

अब बटेर चुक गये हैं, पर इंसान बहुत हैं,
फिर शिकारियों ने अपनी आदत बदली कहाँ होगी।

हमेशा से इसने घर, दुकाँ और खेत ही जलाए हैं,
गिरे जो ज़ालिमों पर वो बिजली कहाँ होगी।

कलम को ताक़तवर बताना, हर खूँखार की साज़िश थी,
वो अम्नपसंद थी, म्याँ से निकली कहाँ होगी।

आज रात भी भूखे आमिर की अप्पी घर नहीं लौटी,
मुझे मालूम है वो मासूम फिसली कहाँ होगी।

..........................................सुप्रेम त्रिवेदी "बर्बाद"

Tuesday, July 1, 2008

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बहुत दिनों से या सच कहूं तो बहुत सालों से ये प्रोजेक्ट(सॉफ्टवेयर इंजीनियर हर काम को प्रोजेक्ट कहते हैं, यहाँ तक कि सुबह उठ कर नित्य कर्म करने को भी वे प्रोजेक्ट कहते हैं) मेरे मन-मस्तिष्क में कूद फांद कर रहा था. चेतन भगत भ्राता के पश्चात तो बाढ़ सी आ गयी. कोई कुछ भी लिख देता और समझता कि लो बाऊजी बन गयी एक और बेस्टसेलर. बस लेखक के नाम् के आगे इंजीनियर और ऍम.बी.ऐ लगा दो और धडाधड कलेक्ट करो रोयल्टी. तो मैंने भी ठान ली कि सर जी लिखना तो अपने को भी है.
तो जी बात कि शुरुआत कहाँ से हुई, कहाँ से खोज हुई कि ये जो 'सॉफ्टवेयर इंजीनियर' है ये भिन्न प्रजाति का प्राणी है. कब ये मनुष्य योनी से किसी और योनी में प्रवेश कर गया. इतिहास पुराना नहीं पर गूढ़ और रहस्यमय ज़रूर है. ये शायद कोई नहीं जानता कि इस प्रजाति का उद्भव कैसे हुआ पर इतना ज़रूर ज्ञात हुआ है कि इनके पूर्वज पूर्णतया मनुष्य थे. फ़िर कालांतर में उनके जींस और आचार व्यवहार में ऐसे बदलाव आए कि 'म्यूटेशन(Mutation) ' नामक शब्द भी छोटा पड़ गया......

Saturday, May 10, 2008

साँकल तोड़ कर सारे, मैं उड़ कर पार जाता हूँ

कहीं वादे कहीं फितरत कहीं आँसू कहीं गुरबत,
मैं हांथों मे पकड़ चलता हूँ, चल कर पार जाता हूँ।
वो आंखें घूरती मुझको, निगाहें चीरती जातीं,
मैं लड़ता रात भर, दिन भर न थक कर हार जाता हूँ।

रंगों मे चमक बाकी, सितारों मे दमक बाकी,
अँधेरा जीत क्यों ले फ़िर, सफर की जागती बाजी,
फलक का चीर दे सीना, ये मुक्ता हाथ के छाले,
लड़ना ही है गर नियती, मैं अबकी बार जाता हूँ

रोने से नहीं रुकना, या गाने से नहीं रुकना,
टूटन में है जय मेरी, झुकाने से नहीं झुकना,
है टहनी से बंधा रहना, या पत्ता टूट कर उड़ना,
साँकल तोड़ कर सारे, मैं उड़ कर पार जाता हूँ।

दवा है गर दवा देना, दुआ है गर दुआ देना,
घावों पर लगा सकना, तो मरहम तर लगा देना,
मगर न वास्ता देना न आँसू का न खूनों का,
ये रक्खो फूल-गुल-दामन, मैं ले तलवार जाता हूँ।

................................. सुप्रेम त्रिवेदी "बर्बाद"

Thursday, April 10, 2008

'द मिसिंग सन्डे'

अभी कुछ दिनों पहले मैंने एक हिन्दी सनीमा देखा था, श्री अजय देवगन अभिनीत 'द मिसिंग सन्डे' वो महिला कौन थी उन साथ ये तो मैं भूल गया और याद करने की ज़हमत भी नहीं उठाऊंगा। खैर दिखने में भी वो किसी हॉलीवुड मूवी की बड़ी ही घटिया नक़ल थी. पर वो कहते हैं न असली जौहरी कांच को भी तराश दे तो हीरे मात खा जाएं. खैर तो इस अजीमो-तरीम का कमाल देखिये की ढूंढ निकाली उसने एक ऐसे मिस्सिंग सन्डे की कहानी जो साल दर साल कहीं दब-दबाकर छिप-छिपाकर बैठ सा गया है या खो-खुवाकर गुम सा हो गया है.ये कहानी है मेरे नायक के उस मिसिंग सन्डे या सही कहूं तो ये कहानी कम कुछ संस्मरण सा ज्यादा है, ये सन्डे कहीं गुम हो गया है यूंही कुछ दस बारह एक साल पहले.ये उस ज़माने का सन्डे है जब सुबह की शुरूआत Hotmail पर आयी किसी Nudge से नहीं होती थी,जब सुबह की शुरूआत 5500 W के PMPO वाले तथाकथित Voice Box के autostart प्रोग्राम से नहीं होती थी,जब सुबह की शुरुआत रात के saved game को सुबह पूरा करने की जल्दी मी नहीं होती थी,ये उस ज़माने का सन्डे है जब आप ब्लूटूथ हैण्डसफ्री लगा कर रात भर अपने ढेर सारे प्रिय लोगों से बात नहीं करते थे, और सुबह जगाने के लिए आप के मोबाइल में ग्यारह मिस्ड काल्स नहीं होती थीं. जब सुबह पाँच बजे रात नहीं होती थी, जब दोपहर १२ बजे दिन नहीं होता था.ये सन्डे है उस ज़माने का जब सन्डे को दिनों के राजा होने का रुतबा प्राप्त था. जब सन्डे की सुबह का इंतज़ार शनिवार की रात को ही शुरू हो जाता था. सुबह होती थी दूरदर्शन की जनसंख्या की घड़ी को देखकर. रंगोली ही हमारा म्यूसिक-सिस्टम था और हेमा मालिनी हमारा पीक म्यूसिक पावर आउटपुट. जब एक रुपिया लेकर हम विडियो-गेम्स पार्लर में घंटों बैठ अपनी बारी का इंतज़ार करते थे, और मारियो की चार चांस में आठवें की रानी लगा कर ही चैन लेते थे. और हमें लगता की जैसे सन्डे इसी के लिए बना है.ये उस ज़माने का सन्डे है जब हम PCO मे बैठ कर सबके चले जाने का इंतज़ार करते थे और फ़िर डरते डरते चुपके से फ़ोन मिलाते थे. उधर से बाप या भाई की आवाज़ सुनकर सकपका कर चोंगा क्रेडिल पर रख देते थे. तब तक तीन में से दो रुपये ख़राब हो चुके होते थे. और आख़िरी एक रुपये के साथ कोई रिस्क लेने की बजाये हम PCO पर बैठी लडकी से उसे बुलाने को कहते थे. जैसे ही वो दूसरी तरफ़ लाइन पर आती तो वो रटे-रटाये शब्द उसे कहने थे -- "पिछली दो दफा भी तुम्ही थे न, तुम मरवाओगे के किसी दिन॥ " बस बन जाता था हमारा सन्डे और हमें लगता की जैसे सन्डे इसी के लिए बना है.ये उस ज़माने का सन्डे है जब हम पागलों की तरह भरी दोपहरी मे धूल-धुआं-धक्कड़ मे घंटों बेतहाशा क्रिकेट खेलते थे. जब हमें रिंकू, मोंटी, राजन, और डब्बू X-BOX 360 से ज्यादा प्यारे थे.......

क्रमशः ......

..........इंतज़ार करें पूरा होने का

Monday, March 10, 2008

रातों में बिखराव बहुत है, सब सपने फट जाते हैं

सन्नाटों में शोर बहुत है, आवाज़ों में खालीपन,
धूप जमा देती है ठन्डी, पर सूखी बरसातें हैं।

चन्दा मामा आज न आना, बड़ी रौशनी फैलाते हो,
तुम रोज़ चाँदनी करते हो, हम फिर से जल जाते हैं।

कुत्तों के बिस्कुट बिकते हैं, तुम लाइन लगा-लगा लेते हो,
पर रोटी फिर रह जाती है, हम फिर भूखे सो जाते हैं।

इन्सानों में हिम्मत कम है, सोने में चमकार बहुत,
फिर तुमने इक दाम लगाया, फिर हम बिकने जाते हैं।

ख्वाबों से जो प्यार हैं करते, वो दिन में सो लेते हैं,
रातों में बिखराव बहुत है, सब सपने फट जाते हैं।