तो क्या कर रात है काफी, अँधेरा जीतने वाला,
हमारे घर के आँगन में अभी भी धूप आती है.
उधर जल्लाद बैठे हैं, ये बस्ती दोज़खों की है,
हमारे आंसुओं से घंटियों की गूँज आती है.
कोहरा है घना और सर्दियाँ जमा देने ही वाली हैं,
ये अपनी आहें हैं जो गर्मियां बन खूब आती हैं.
चढा देना वो सूली पर या सीना चाक कर देना,
ये शायर की ज़बानी है, लहू से रंग लाती है.
...................................... सुप्रेम त्रिवेदी "आबाद" 01:46 GMT
2 comments:
bahut khoob dost.. kamaal kar ka likha hai....
hamesha ki tarah wahi aag our wahi aah hai. bahut khoob bhai ji.
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