Saturday, December 13, 2008

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ये कविता मैंने काफी पहले लिखी थी तकरीबन आठ एक साल पहले शायद फरवरी २००० mein. तो भाषा में बचकानापन हो सकता है. हो सकता है ये तथाकथित काव्यगत मानको पर खरी भी न उतरे. लेकिन विचार और विद्रोह में कहीं से कम नहीं है. aur Reference to the context इससे बेहतर सच कहूं तो लिख ही नहीं पाया. शायद आग बुझ गयी है या विद्रोह पीडा में बदल गया है. लेकिन एक बात है ज़िंदगी बड़ी है और दुनिया गोल. So friends it is not over till its over. पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त...Till then enjoy the raw thoughts..
कभी देखता हूँ दिन के उजाले में, अन्दर नाक़ाब ए काले में,ज़माने को दिया जलना सिखाते हैं, अपने घर में कालिख बनाते हैं,
दो मीठे बोल को तरसे हम, उगलेंगे सब ही ज़हर खरा,थोड़ी सी मिल जाये छूट, खा जायें नोच कर कटा मरा,
अंधेरो के खेत सींचते, बन्दूंको से ख्वाब उगाते,आग बुझाने का धंधा करते, अन्दर जिनके तेजाब भरा,
हर घर की छत पर आग लगी, चिमनी से नज़रदराज़ धुंआ.खाते थे पका कर रोटी जहाँ, खोदा है वहां लाशों का कुआँ.
.....................सुप्रेम त्रिवेदी "आबाद"

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