Wednesday, December 5, 2007

हमारे ज़माने की प्रेम-कथा....a bug-free love story

प्रस्तुत है मेरी प्रिय कहानी, मूल लेखक का नाम अज्ञात है और आपके सेवक द्वारा अनूदित है। यह कहानी की पूर्णता में मेरे प्रिय मित्र सतीश झा का योगदान भी अविस्मरणीय है। शायद ये कहानी मुझे इसलिये भी पसंद हो सकती है क्योंकि ये कहानी है एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर की जो जितना मेरी तरह है शायद उतना ही आपकी तरह। कहीं न कहीं ये हम सब की कहानी है- कम से कम उनकी तो ज़रूर ही है जो "ज़िन्दगी की गाड़ी चलाने के लिये सॉफ्टवेयर लिखते हैं और सिग्रेट-ओ-शराब का खर्चा उठाने के लिये कभी-कभार शेयर बाज़ार की उठापटक में हाथ आज़माते हैं, जिनके क्रेडिट-कार्ड की लिमिट चौदवीं के चाँद से पहले पूर्णता को प्राप्त हो जाती है, जिनकी बाइक कभी मेन में नहीं रहती, जिनकी कार पर वाइपर ज़द को छोड़ हर जगह धूल या धुआँ पाया जाता है, जिनका प्यार 'जस्ट गुड फ्रेंड्स' और फ्रेंडशिप विजय माल्या के एहसानों तले और कामकाज गूगल देवता के एहसानों तले सर से पैर तक दबा है।"
ये उस कैटेगरी के बहादुर होते हैं जो एक शर्त जीतने के लिये पासिंग-अफेयर के इम्तिहान को पास करने में मैगी बनने से भी कम समय लगाते हैं पर बात जब दिल की हो और मामला ज़िन्दगी का तो इनका हिमालय रूपी ईगो यानि आत्माभिमान आड़े आ जाता है और फिर कोई आश्चर्य नहीं कि ये "वो तीन शब्द" कहने में उतना ही समय लगा दें जितना कि अभिनेता कुमार गौरव ने 'लव-स्टोरी' के बाद दूसरी सोलो हिट देने में लगा दिया।
इसीलिये ये कहानी समर्पित करता हूँ मैं अपने पहले-प्यार को॰॰॰॰॰॰ इसी फरवरी में उसका 'विवाह' है और वो भी किसी हमारी प्रजाति के ही प्राणी के साथ यानि के एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर के साथ। कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है कि काश़ मैं उस समय में वापस जा पाता और उसे बता पाता कि कि मैं कितना प्यार करता था उसे॰॰॰॰॰॰॰खैर शुरू करते हैं-

प्रेम कहानी
एक ऐसी ही दिसम्बर की ठिठुरती और कँपकँपाती सुबह थी वो, हिन्दुस्तान के मौसमों द्वारा अतिक्रमण के लिये मशहूर शहर दिल्ली की। सर्दी ऐसी कि हाड़ कँपा दे और गर्मी ऐसी कि निचोड़ कर रख दे। मौसम के इसी उतार-चढ़ाव के लिये मशहूर या सही कहूँ तो बदनाम है दिल्ली। ख़ैर विषय से भटके बिना मुद्दे पर आते हैं। मैं कम्पनी की बस में ऑफ़िस की ओर जा रहा था और रोज़ की तरह अपनी अधूरी नींद पूरी करने की जद्दोजहद में लगा था। तभी एक लड़की मेरे पड़ोस की सीट पर मालिकाना हक़ जताते हुए बस की खिड़की के उस शीशे से छेड़खानी करने लगती है जिस पर सर टिका कर मैं झपकी लेने की कोशिश कर रहा था। मेरी लाल आँखें कसमसा कर खुलीं जैसे कि वो पहले से जानती हों कि उन्हें क्या देखना है और एक जोड़ी हसीन आँखों को घूरने लगीं।
"गुड मॉर्निंग, - लगता है रात का नशा अभी, आँख से गया नहीं॰॰॰॰॰॰॰"
"गुड नाइट,"- मेरी तब तक लगभग बंद हो चुकी आँखों ने अधखुला हो कर कहा।
और फिर खो गया मैं अपनी नींद के उस सपने में जहाँ हज़ारों करीना सरीखी आत्माऐँ मुझ पर हमला करते हुए कह रहीं थीं---"रात का नशा अभी, आँख से गया नहीं॰॰॰॰॰॰॰"और मैं अशोका बना अपनी कलिंग विजयी तलवार से उन सबका संहार कर रहा था।तभी एकाएक एक तलवार आकर मेरे पेट में लगती है और मैं भड़भड़ा कर उठ बैठता हूँ। ये तलवार नहीं एक कोमल कोहनी थी जो मेरे पेट में आकर लगी थी, शायद इतनी कोमल भी नहीं॰॰॰
"वेक-अप बूज़ो" - अब तक वो आत्माऐँ एक बड़ी सी मुस्कुराहट वाली सुंदर स्त्री में बदल चुकी थी।
"मैं यहाँ तुम्हारे खर्राटे सुनने के लिये नहीं बैठी हूँ!!!"


अनमने मन से मैंने आँखें खोली-"क्या बात है?" क्या को मैने कुछ ज्यादा ही घसीट दिया था।
स्मिता ठाकुर अपने कुल-नाम के अनुरूप ही एक लम्बी, खूबसूरत और टॉम-बॉय टाइप की लड़की थी। साथ ही वो मेरी सबसे अच्छी सहेली भी थी। मैं आज भी महिला मित्रों को 'सहेली' इसी नाम से सम्बोधित करने मे यकीन रखता हूँ।
"अब उठो भी!," उसने कहा "क्या तुम सोते ही रहोगे? मुझे तुमसे कुछ बात करनी है।"
"अब बात तो तुम रोज़ करती हो"
"सोते भी तो तुम रोज़ हो"
"अभी काफी नहीं है"
"मतलब मुझसे बात काफी हो गयी है, यही ना!"
अब ऐसी बात के आगे आपके सारे तर्क फेल हो जाते हैं। सो मुझे भी हार माननी पड़ी।

"अच्छा बताओ क्या बात है?"

"जानते हो कल क्या हुआ? अच्छा गेस करो॰॰॰"

"अनुराग कॉल्ड यू लास्ट नाइट"

"तुम्हें कैसै पता?" वो हतप्रभ थी

"अबे उसने नम्बर किससे लिया था?"
"और तुमने दे भी दिया॰॰॰" उसने हर शब्द चबा कर बोला॰॰॰॰॰॰॰
"और क्या करता? और हाँ, जिस तरह से फ्लर्टेटुअसली तुम उसे पिछले इतने दिनों से ट्रीट कर रही हो; ही श्योरली माइट हैव थॉट दैट हैड अ चाँस।"
सतही तौर पर स्मिता उन लड़कियों में से थी जिनका हर दूसरा लड़का गुड फ्रेंड हुआ करता है। यहाँ तक कि मेरी अपनी टीम में मुझसे ज्यादा लोकप्रिय थी वो । मैं उसे अक्सर समझाता कि इस दुनिया में 'पहली नज़र का प्यार' तो होता है पर 'पहली नज़र में दोस्ती' जैसी कोई चीज़ नहीं होती। दोस्त बनाने में वक़्त लेना चाहिये। तो वो कहती कि शायद वो इतनी ऐक्ट्रोवर्ट, ओपन और मिलनसार है कि सब उससे जल्दी घुलमिल जाते हैं। इसपर मैं कहता-
"देखो स्मिता, मैं आज तुम्हें लाख टके की बात बताता हूँ। पहले-पहल कोई लड़का किसी भी लड़की का गुड फ्रेंड नहीं होता, एवरीबॅडी इनीशिऐट्स विद अ होप ऑफ चाँस"
"तुम्हें मज़ा आता है न मुझे ऐसी सिचुऐशन में फँसा के"
"क्या बात कर रही हो! मज़ा आएगा मुझे तुम्हें परेशान देखकर!" मैंने झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा,"तुम इतना ही समझ पाई हो मुझे आजतक, अरे मुझे मज़ा नहीं, बहऊऊऊऊऊऊऊऊऊत मज़ा अता है"ये कहकर मैं उसके घूंसे से तो बच नहीं सकता था, पचाक!
मैं स्मिता को साल भर से जानता था, हम दोनों अपने सुख-दुख बाँटते या सच कहूँ तो वो समझती कि वो मुझसे अपने दुख बाँट रही है - CNBC की रेसिपी गड़बड़ है, या पर्टिकुलर टॅप नोयडा के किसी स्टोर में नहीं हैं या उसने प्रिया कि गाड़ी ठोक दी या बास ने टोन ऊँची कर दी .......... अब यार मेरी माँ इन सब से मुझे तो छोड़ो मेरे बाप को भी क्या मतलब है?वहीं दूसरी तरफ मेरे ग़म का दायरा 'निफ्टी' तक ही सीमित था। मेरा चेहरा स्टाक मार्केट का हाल कहता था।
"आज़ फिर मार्केट डाउन है"
'च च च हाँ' मैं गहरी साँस ले कर कहता
"अबे! आजतक मैंनें तुम्हें फायदे में नहीं देखा"
"सूमी-- सुनो!"
"मैं इक फूटी कौड़ी नहीं दूँगी और दारू-सुट्टा और जुआ खेलने के लिये तो बिल्कुल नहीं" वो गुस्साने का नाटक करती, पर मै जानता कि पैसै तो मुझे मिल ही जायेंगे क्योंकि उसे अपनी बोरिंग कहाँनियाँ सुनाने के लिये मुझ जैसा सीधा श्रोता तो मिलने से रहा।।।
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रात के बारह बज चुके थे पर मेरा फोन बज रहा था"हैलो," मैनें फोन उठा कर कहा ।

"हैप्पी बर्थ डे," दूसरी ओर वही थी
"मैडम, सूखा-सूखा हैप्पी बर्थ डे अरे! कुछ सरप्राइज़ पार्टी-शार्टी दो तो हम भी जानें"
"अऱे! तो फ़िर गेटवा तो खोलिये" उसने मेरे ही स्टाइल में जवाब दिया
तो भाई साहब मोहतरमा दिखी दरवाज़े पे। हाथ में सेलफोन और साथ में पीछे-पीछे एसा लगता था जैसे मेरी कम्पनी की सारी जनता उनके नेतृत्व में मेरा जन्मोत्सव मनाने को आई है या सच कहूँ तो लाई गयी है।मेरे रूम-मेट्स को आज ऑफिस में बहुत काम था, अब मैं उनके काम का राज़ समझ गया था।मैंने फिर ढेर सारी मोमबत्तियाँ बुझाईँ, शायद पच्चीस से कहीं ज़्यादा। केक का बलिदान दिया, तशरीफ पर लातों की बरसात झेली और केक की आइसिंग से अपने मुँह पर चित्रकारी करवाई। वैसे अगर स्मिता का बस चलता तो वो ब्रश और पेन्ट ले कर बैठ ही गई होती मेरे कैनवस रूपी मुख पर अपनी चित्रकला का कौशल दिखाने। खैर॰॰ पर पहली बार मुझे उसकी शरारत बुरी नहीं लग रही थी। आखिरकार उसे रोकने के लिये मुझे उसे रिश्वत देनी ही पड़ी--"लॉर्ड ऑफ द रिंग्स"। ये सुनते ही वह रुक गयी। मुझसे पहले भी वो ये किताब दो-चार बार मांग चुकी थी तो मैंने सोचा चलो किताब दे कर चित्रकारी से छूट प्राप्त करते हैं।

सबके जाने के बाद भी हम घन्टे भर तक गपशप करते रहे।
"अब शायद मुझे चलना चाहिये," आखिरकार उसने लम्बी सी जम्हाई लेते हुये कहा।
"कैसे चलोगी, बाईक ऑर कार," मैनें सर हिलाते हुए पूछा।
"दोनों में से कुछ भी तुम्हारे पास नहीं है," उसने ज़हरीली मुस्कान बिखेरते हुये कहा।
"अरे! मैम रुम-मेट्स में प्यार होना मांगता, आपकी तरह नहीं की एक ने खाना बनाया तो दूसरे को महक भी नहीं आनी चाहिये। अभी देखो, रानू भाई़! ज़रा कार की चाबी देना........"
"ये ले, और पहुँचा दे - पहुँचा दे। और बेटा आज एकदम सही जगह पहुँचाना" रानू की बातों में शरारत टपक रही थी। मैंने उसे घूर कर चुप रहने को कहा।
"वाह़! बेटा, आज केक वाली मिल गयी तो भाई को भूल गया। यही दोस्ती-यही प्याऱ!!! दोस्त - दोस्त ना रहा॰॰॰॰॰॰॰॰, " रानू की चित-परिचित नौटन्की शुरू हो चुकी थी।
"मेरे बाप! मान जा क्यों कचरा कर रहा है," मैंनैं हाथ जोड़ कर कहा।
"अच्छा सुन, माफ किया। लौटते पर 'क्लासिक' ले आना, पूरी डिब्बी, बीस वाली।"
"पैसे!" मैंनें हमेशा की तरह कहा॰॰॰॰
"पैसे!, पैसे!, चाहिये तुम्हें॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ ऒऒऒऒऒ हम तुम एक गाड़ी मे बन्द हों॰॰॰॰॰॰॰॰," उसने चिल्ला कर गाना शुरू कर दिया॰॰॰॰॰॰॰
"नहीं॰॰॰॰॰॰नहीं॰॰॰॰॰॰ चाहिये," मैं किसी तरह से वहाँ से कट लिया॰॰॰॰॰
मंगनी कार में मैं उसे घर छोड़ने गया। पर आज रानू की कार मुझे बेगानी सी लग रही थी, पता नहीं क्यों? ड्राइविंग सीट पर बैठा मैं नज़र चुरा कर उसे देख लेता, पता नहीं पता नहीं क्यों? वो तो हर वक्त मेरे पास थी, हमेशा आँखों के सामने फिर भी मैं उसे छिप कर देख रहा था, पता नहीं क्यों? मैंने सैकड़ों बार उसे इसी रास्ते से घर छोडा था, पर आज ये कमबख्त रास्ता खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था, पता नहीं क्यों?

पता नहीं क्यों मुझे उस समय ऐसा लग रहा था कि मुझे कोई फर्क नहीं पडता कि कल चाहे मैं पैच 12 की रिलीज़ करूँ या नहीं, कल चाहे सेनसेक्स ऊपर हो या नीचे, मेरा वीज़ा अप्रूव हो या नहीं। मैं पाँच पेग का नशा महसूस कर रहा था, इसी धुन में मैंने ध्यान नहीं दिया उसका घर आ गया है॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
"हैलो, किसके खयालों में खोये हैं जनाब़, या अपनी किसी सहेली के घर ले जाने का इरादा है? दैट न्यू बार्न चिक।"
अब उसके मज़ाक मुझे तीर की तरह चुभ रहे थे।।।।।।।
शायद मुझे कुछ हो रहा था॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰


फ़िर जब वह कार से उतर रही थी तो मैंने उसे एक अजीब ढंग से रोका --

"हे प्रीती !!"

"क्या ...... " उसने लंबा घसीटते हुए कहा .

"थैंक्स "

"हेई, नो सेंटिगिरी, बेटा गिफ्ट से भागने का तो इरादा नहीं है, इसीलिये इतना सेंटी मारा जा रहा है ... आयें"

"एक चीज़ जानती हो, क्या विडम्बना है, मेरे बर्थडे पर मैं तुम्हे गिफ्ट दे रहा हूँ ...... "

"दैट्स बेकौज़ यू आर स्टूपिड माई डियर साहित्य सम्राट वि .. डम .. बन ... आ "
"और हाँ एक बात का ख़्याल रखना, तुम्हारी सेहत के लिए ये ही अच्छा रहेगा की वो बुक तुम मुझे दे ही देना नहीं तो तुम्हारी किताब अभी भी मेरे पास है टेंन-टेंन-टानेंन "

"हे वो तुम नहीं रख सकतीं, वो किताब मुझे मेरी एक प्यारी सी सहेली इस्मिता ने गिफ्ट की थी दैट्स अ प्राईस्ड पॅसेशन"

"अच्छा वो प्यारी ओर मैं मेरा क्या मैं सिर्फ़ भारतीय नारी?" उसके हाथ पीछे बाँध कर इस्तकबाली मुद्रा में मजाकिया लहजे में कहा, "देखा! तुम्हारी संगत मे मैं भी कविता करने लगी"

"बहुत ख़ूब पर ये तुम्हारी ट्रिक मुझ पर काम करने वाले नहीं हैं, ओर फ़िर किताब तुम्हे चाहिए क्यों ? पहले ही तुम उसे पढ़-पढ़ कर घिस चुकी हो"

"उससे मुझे कोई मतलब नहीं है, तुम मुझे बुक लाकर दे रहे हो और हम दोनों ये जानते हैं", उसने अपनी गर्व मिश्रित आत्मविश्वासी मुस्कान धकेलते हुए जड़ ही दी. ये कह कर वो भाग निकली -- "गुड़ नाईट"

मैं कुछ देर वहीँ बोनट पर बैठा रहा. हमारा रिश्ता ऐसा ही था थोड़ा सा मजाक, थोड़ी सी छेड़-छाड़ ओर ढेर सारी फरमाइश से भरपूर. पर मैं बदलाव की शराब के दस पैगों के हैंगओवर को महसूस कर रहा था. मैं अभी अपने आपसे बातें कर ही रहा था की एक पेपर-बॉल आकर मेरी नाक पर लगता है.

"अभी तक क्या कर रहे हो? " उसने बालकनी से तेज़ आवाज़ मे फुसफुसाते हुए पूछा
"इसी पेपर-बाल फाइट का वेट कर रहा था"
"धीरे बोलो, घर जाओ और सो जाओ वक्त हो रहा है"
"जीं माता जीं जाता हूँ"

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वैसे मैं एक अति खर्चीला किस्म का उपहार प्रदाता हूँ. इस बात का वास्तविक एहसास मुझे तब हुआ जब मैंने उसके लिए किताबें खरीदीं. हर वो किताब जो मैं कभी खरीदना चाहता था पर कमसे कम अपने लिए तो खरीद न सका. खैर कुछ लोग ओखली मे सर डालते हैं मैं तो ओखली ही सर पे दे मरी थी. अब अपनी कम से कम एक-मात्र फ्रेंड-गर्ल के लिए इतना तो बनता ही है, मैंने मन ही मन सोचा. वैसे कहे को तो मैं कुछ भी कह सकता हूँ पर वास्तविकता यही है की कि वो मेरी पहली और एक मात्र महिला-मित्र थी और उसी के दम पर मैंने अपने छड़े दोस्तों की जमात मे अच्छी खासी धाक जमा रखी थी. नमक मिर्च लगा कर मैं उनको रसेदार किस्से सुनाया करता था. पर स्थितियां रिलायंस के भाव की तरह तेज़ी से बदल रही थीं, कभी ऊपर कभी नीचे ओर कभी फ़्लैट.


खैर ढेर सारी किताबें और दर्जन भर क्रेडिट-कार्ड की स्लिप लेकर जब मैं उसके फ़्लैट पहुँचा तो मुझे मिला क्या --"अकेले गए थे तुम? इसमे चार्ल्स डिकेन्स तो है ही नहीं? इसका फर्स्ट पार्ट कहाँ है? दिस इज़ नोट द ओरिजिनल वन? " और न जाने ही कितने सवाल.....


"मैम, ये देखिये की कितने प्यार से लाया हूँ"


"प्यार! ये कहो की अपनी जान बचाने के लिए लाये हो? नही तो तुम जानते ही हो की मैं तुम्हारा अंजाम क्या करती ! " ये कह कर वो अपने तथाकथित लिविंग रूम मे चली गयी


"और हाँ मैम क्या आपको मालूम हैं की आपकी इन किताबों के लिए मैंने डेढ़ घंटे डी-टी-सी की बस मे धक्के खाए हैं" मैंने कस कर कहा ताकी आवाज़ उस तक पहुंचे.


"हाँ, अच्छा है. गरीबी और भुखमरी इंसान से कुछ भी कराती है, " उसने कहा " ओंर हाँ फ्रिज मे आधा पिज्ज़ा पड़ा है."


"आक-थू , " मैंने पिज्ज़ा चखते ही कहा "ये तो खराब है, सडा है "


"तो तुम भी तो सड़े हुए हो??" अब तक वो मेरा मज़ाक उड़ाने हाल मे आ चुकी थी और उसकी बेतहाशा हंसी अपने पूरे शबाब पर थी.

इसके बाद मेरा ज़्यादातर वक़्त उसकी जगह में गुजरने लगा, बहुधा इसलिये क्योंकि मुझे वो सारी किताबें पढ़नी थीं और वो मुझे मांग कर घर ले जाने तो देने वाली थी नहीं
--"हे एप-मैन, मैं तुम्हारे जितनी स्टूपिड नहीं हूँ की जो ट्रैप मैंने तुम्हारे लिए बिछाया है उसी में गिर जाऊं. तुम अपनी बुक्स की जो हालत करते हो वो मुझे मालूम है, यु आर नॉट गोइंग तो डू द सेम टू माइ मास्टरपीसेज. और हाँ पन्ने मत मोड़ना, बुकमार्क यूज़ करो ओ ओ !!!!"

तो ये सब सहना पड़ता था मुझे उन किताबो के लिए. कई कई बार तो वो मुझे हाथ धुलवाती, उन किताबों को छूने से पहले....जैसे की वो कोई धर्म-ग्रंथ हैं और मैं काफिर-ए-अज़ीम.
"क्या मुझे तुम्हे याद दिलाना पड़ेगा की ये वही किताबें हैं जो मैंने तुम्हे लाकर दीं हैं!!" हालांकि मैं ये कहना नहीं चाहता था पर उसकी अनगिन शर्तों ने मुझे मजबूर किया की मैं कम से कम अपना हक जताने का नाटक तो कर ही दूं. आखिर मेरी भी कोई इज़्ज़त है!! आत्म-सम्मान है!!

"तो क्या ?? अब ये मेरी हैं , जिसे चाहे दूं जिसे चाहे न दूं!! ओर हाँ कल से अगर आना तो ये अपने नकली नाइकी बाहर उतार कर आना!!"
"मैडम दोज़ आर वर्थ फिफ्टी डोलर्स फाइव टाइम्स योर ब्रांडेड बेड-शीट, " फ़िर जब मुझे मामला गलत दिशा मे जाता दिखा तो मैंने मुद्दा बदलते हुए कहा--
" अच्छा ये बताओ मेरा बर्थडे गिफ्ट कहाँ है??"
"कभी वो तुम्हारे पेट मे था और अब तक यमुना मे जा चुका होगा "
"हुह!!"
"याद है वो केक जो मैंने तुम्हारे लिए बेक किया था!!"
"तुम क्या? तुमने केक!! तुम केक नहीं बेक कर सकतीं!!" मैंने आश्चर्य मिश्रित हंसी और अविश्वास के साथ कहा. शायद ये मेरी गलती थी!! मुझे आभास हो चला था की मैंने उसका दिल दुखा दिया है और अब मैं लीपापोती करने का तरीका ढूंढ रहा था.
मैंने फ़िर से पूछा "तुमने बेक किया था? ख़ुद!!" इस बार मैंने अपने लहजे से आश्चर्य, व्यंग्य और अविश्वास को कम कर उसमे सहानुभूति और प्रशंसा मिला दी थी. ये काम कर गया और उसका मूड रूठ मोड से गर्व मोड मे आ गया था, जैसे वो कहना चाहती हो कि देखा बच्चू! कितना बड़ा काम कर डाला मैंने.

"लेकिन तुमने कभी बताया नहीं ?" मैंने अपनी व्यग्रता को जरी रखा ..
"लेकिन तुमने कभी पूछा ही नहीं" उसने अपने खास अंदाज़ मे जवाब दिया
"वो केक !! और तुमने सारी आइसिंग मेरे चहरे पर पोत दी? "

"केक तुम्हारे लिए ही तो था बेवक़ूफ़!!"

"कितना टाइम् लगाया तुमने उसे बनने में ?" केक वास्तव मे बड़ा ही शानदार था. कम से कम दो लेयर वनीला-चॉकलेट और तीन तरह की आइसिंग. उसने ये सब ख़ुद किया था!!!


"सवा घंटा वनिला में, उतना ही चॉकलेट में फ़िर पन्द्रह मिनट में दोनों को काट के एक साथ, फ़िर हर तरह की आइसिंग में कम से कम बीस मिनट और उन सब को केक पर लगना एक घंटा, अब तुम तो शेयरखान के हिसाबी हो, लगा लो टोटल हिसाब," उसने पूरा हिसाब मेरी ही भाषा में मुझे समझा दिया. " और हाँ वो सारा बवाल साफ करने में एक घंटा और जोड़ लो!!!"
वैसे वो शायद ही कभी अपने किए काम का क्रेडिट लेती होगी लेकिन जब लेती है तो छप्पर फाड़ कर लेती है. इस दशा में वो जब तक आपको अपने एहसानों के बोझ तले आपको दबाती नहीं बल्कि पीस देती है. खैर वैसे भी मैं उस समय इस बात पर कतई ध्यान नहीं दे रहा था.


"तो तुमने पाँच घंटे लगाये उस केक को बनाने में?"


"पाँच तो बनने में लगे सर!!!! और वो साफ सफाई क्या भूतों ने की? उसमे भी तो लगा एक घंटा!!"


मैं निरुत्तर था. मुझे समझ नहीं आ रहा था की कैसे रिएक्ट करूं. उसे कुकिंग से सख्त नफरत थी.


"और हाँ एक बात तो मैं भूल ही गयी," उसने अपना कथन जारी रखा, "उसके पिछले हफ्ते जो टाइम् मैंने सीखने मे लगाया. पहले तीन केक खाने के लिए तो चूहों ने भी इनकार कर दिया था."


"क्यों?" मेरे मुह से अनायास ही निकल गया.


"पहला जल गया था, दूसरा रबड़ बन गया था और तीसरे में, हा हा तीसरे में तो मैं चीनी ही डालना भूल गयी थी" अब वो मेरा खेल मुझ ही से खेल रही थी. जानबूझ कर हँस कर बातों के रुख को मोड़ रही थी. पहली बार मुझे उसकी आंखों में मेरे लिए हँसी-मज़ाक और हार-जीत के अलावा भी कुछ दिख रहा था. एक अजीब सी शर्म थी उसकी आँखों में, शर्म कहूँ या क्या कहूँ मुझे पता नहीं, पर कुछ तो था, कुछ बहुत ही अजीब सा. और किसी दिन वो मुझ पर इतना एहसान जताने के बाद खुशी से फूली नहीं समाती, पर आज वो कुछ पढने की कोशिश कर रही थी, मेरी आंखों में. और कुछ छुपाने की कोशिश कर रही थी, अपनी आंखों में. आज पहली बार हम दोनों आँख मिला कर नहीं बल्कि आँख छुपा कर बात कर रहे थे.


"मेरा मतलब है की तुमने इतना सब क्यों किया सिर्फ़ मेरे लिए एक केक बनने के लिए?"


"तुम्हारे बर्थडे के लिए स्टूपिड!! ओंफ कोर्स, मैं तुम्हारे आज तक के हर गिफ्ट को बीट करना चाहती थी जो तुमने मुझे दिया है. अब इसको बीट करो तो जाने"
वो ऐसे बन रही थी जैसे कोई वर्ल्ड चैंपियनशिप जीत गयी हो.



वैसे जहाँ तक मेरा सवाल था, वो वास्तव मे जीत गयी थी. मैं तो शायद कभी एक हफ्ता न लगता उसके लिए कुछ बनाने में. या शायद मैं तो एक घंटा भी न लगाता किसी के लिए कुछ भी बनाने में. मेरे लिए गिफ्ट का मतलब था उसे स्टोर तक ले जाना उसके कुछ पसंद आने तक वहीं बाहर खड़े इंतज़ार करना और अंततोगत्वा कुछ पसन्द आने पर क्रेडिट कार्ड स्वैप करा कर बिल पर दस्तखत करना. एकाएक मैं अपने छोटेपन का एहसास कर रहा था.
"थैंक्स!" मुझसे कुछ कहते ही न बना, "थैंक्स अ लोट"

"हे! तुम फिर सेंटी हो रहे हो मुझ पर!! "

इस बार मैं सचमुच हो रहा था --
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अगले दिन काम पर मैं स्मिता के प्रति अपने नव-पल्लवित विचारों के विषय में सोच कर मन ही मन मुस्कुरा रहा था कि बॅस का बुलावा आ गया। सभी ज़रूरी खैर-ओ-खबर लेने के बाद उन्होंने मुझे बताया कि कम्पनी के काम से मुझे न्यू-यॉर्क जाना पड़ेगा शायद साल छः महीने के लिये। साधारणतया मुझे इस बात से फर्क नहीं पड़ता, मैं न्यू-यॉर्क या नाइजीरिया कहीं भी जाने को तय्यार था। पर उस समय मेरे दिमाग में जो पहला ख्याल आया वो ये था के मुझे स्मिता से इतने समय के लिये दूर रहना पड़ेगा। अभी चौबीस घण्टे पहले मैं उसका साथ छूटने के विचार से शायद विचलित ही होता पर उस समय मेरे पाँवों तले से मानो ज़मीन ही सरक गयी थी। तभी मुझे पता चला के हो ना हो मुझे हो ही गया है प्यार। न ये क्रश था, न इनफैचुयेशन, ये कुछ अलग ही था।
"क्या तुम्हें कोई प्रॉब्लम है जाने में?" बॉस ने मुझसे पूछा, क्योँकि मैंने जवाब नहीं दिया था।
"नहीं," मैंने जवाब दिया, वरना क्या कहता, कहता के मुझे प्यार हो गया है, जुदाई बर्दाश्त नहीं?

"कब जाना होगा मुझे?"
एक महीना था मेरे पास।
====================================================================================== "वाऊ़!! न्यू यॉर्क, गज़ब की जगह है, तुम्हें पता है वहाँ सर्दियों में बर्फ रहती है?" स्मिता बहुत ही ख़ुश थी मेरे जाने को लेकर। उसे मेरी स्थिति का ज़रा भी अन्दाज़ा नहीं था। वो मेरे दिल के उस बोझ, जिसे अब मै विछोह, विरह या जुदाई कुछ भी कहूँ, को बाँटने के मूड में कतई नहीं थी।
मैंने तब तक ये निर्णय नहीं कर पाया था कि मैं कैसे उसे ये बताने वाला था। ऐसा नहीं था कि मुझे प्रेम-प्रणयादि निवेदनों का अनुभव नहीं था। मेरी जूनियर्स, सहपाठिनियाँ और यहाँ तक कि सीनियर्स इस बात की गवाह थीं कि मैं इक पराजित किन्तु हार न मानने वाला खिलाड़ी था। 'किन्ग ब्रूस ऑफ स्कॉटलैंड' और 'बाल-भारती का बुद्धिराम' मैं इन दोनों चरित्रों से बराबर प्रभावित था -- 'करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान'

लेकिन शायद ये युद्ध ही था जिस में 'ब्रूस' जीत गया. अगर वो प्रेम पथ का धावक रहा होता तो उसका हश्र मुझसे भला न होता. शायद इससे बड़ी सच्चाई ये थी कि तथाकथित वास्तविक प्रेम का ये मेरा पहला अनुभव था. वैसे मेरी धारणा, मेरा फलसफा, सब बदलाव या कहूं कि आमूलचूल परिवर्तन के कगार पर खड़े थे. न जाने कितनी ही बार मैंने अपने दोस्तों को इसी बात को ले कर खरी-खोटी सुनाई थी. अबे प्यार कमजोर लोग करते हैं. मेरा मानना था कि कुछ चालाक लोगों ने वासना के लिए एक अच्छा नाम खोजा है 'प्यार' और उसी के भरोसे वो अपनी दुकान चलाते हैं. मैं अक्सर कहता था "इफ आई कैन बाय ईट फॉर मनी, व्हाई शुड आई स्पेंड इमोशंस?" खैर मेरी धारणा और मेरी वास्तविक स्थिति में मात्र एक केक का फासला था जो वो मिटा चुकी थी. इतनी छोटी सी घटना मुझे प्यार का सबक सिखायेगी -- सोचा न था.

"क्या हुआ? " उसने पूछा, "क्या तुम खुश नहीं हो?"
"ओह!" मैंने बहाना बनाते हुए कहा, "नहीं, ये सब इतना अचानक हुआ न, और तुम तो जानती हो वैसे भी मुझे ज्यादा घूमने फिरने का शौक नहीं है."
"क्या बेवकूफ! जाओ जगह देखो और मैंने सुना है कि वहाँ की लड़कियां बड़ी 'झकास' होती हैं," उसने मुस्कुराते हुए कहा. मैं उससे कहना चाहता था कि अगर अब मैं किसी लडकी को नज़र उठा कर देखना चाहता भी था तो वो सिर्फ़ वो थी 'वो'. पर मैं नहीं ख सका.
मुझे एहसास हुआ कि अब सिर्फ़ मेरे पास एक महीना है. वैसे जब से मैं उसे जानता था तबसे उसने सिर्फ़ लड़कों को रिजेक्ट किया था. मैं अपने साथ भी वही होते हुए नहीं देखना चाहता था. वैसे भी मैं उससे कुछ कह कर अपनी जैसी-तैसी दोस्ती में दरार दल कर बचे हुए एक महीने को भी बर्बाद नहीं करना चाहता था. मैं इस एक महीने को उसके साथ बिताये हुए सबसे बेहतरीन समय में तब्दील करना चाहता था. शायद जब मैं लौट कर आऊँ तब उसे दोबारा कभी मिल भी न पाऊँ. आखिरकार साल भर कोई कम समय नहीं होता. हम लगभग हर शाम बाहर खाते और शहर भर के बेहतरीन रेस्त्राओं को छान चुके थे. वो मुझे गर्म कपडे, फोर्मल्स, जूते, टूथपेस्ट और न जाने सैकड़ों ही चीज़ें खरीदने मी मदद करती जीने बरे में मैं ख़ुद तो सोच भी नहीं सकता था.

"तुम्हें एक नेल-कटर खरीदना है". मैं अपने रूम-मेट्स का उसे करता था.

"मैंने एक ज़रूरी दवाओं की लिस्ट बना दी है जो तुम्हें ले जाने हैं."

"तुम्हारी आयरन तो वहां काम करेगी नहीं तो उसे ले जाने से कोई फायदा नहीं है क्योंकि तुम्हे ११० वोल्ट्स की फ्लैट पिन्स वाली चलेगी. वहां जाते ही के-मार्ट या वाल-मार्ट से ले लेना."

"तुम्हे कमसे कम दो जोड़ी फोर्मल शूस और १० जोड़ी डार्क सोक्स चाहिए. ईस्ट कोस्ट मी फोर्मल ड्रेस कोड है और तुम अपनी लौन्ड्री एक दो हफ्ते से कम में तो करने वाले हो नहीं."

"कितनी टाईस हैं तुम्हारे पास? इन ब्लेज़र्स के साथ कौन से ट्रौसर्स चलेंगे?"

"और हाँ जाने से पहले बाल ज़रूर कटा लेना, जानती हूँ तुम्हें, वहाँ जा कर तो तुम कराने वाले हो नहीं."
वो सुबह सुबह मुझे फोन कर के जगा देती और लिस्ट में एक दो आइटम और जुड़ जाते।

जैसे-जैसे समय गुज़रता जा रहा था, मैं उसके प्यार मे और पागल हुआ जा रहा था।

वह महीना बड़ी तेज़ी से गुज़र गया। जिस दिन मुझे जाना था मैंने उसे एयरपोर्ट तक साथ चलने को कहा."ऑफ़ कोर्स, चिंटू. तुम्हें क्या लगता है मैं तुम्हें इतनी आसानी से चले जाने दूंगी. ऐसे ही!!!!!"

मेरे बैग्स पैक करने के बाद और उस लिस्ट को हज़ारवीं बार चेक करने के बाद अन्तातोगत्वा उसने कहा"अब चल सकते हैं ... "

हम एयरपोर्ट कम से कम चार घंटे पहले पहुँच गए थे, एक तो अंतर्राष्ट्रीय फ्लाईट और ऊपर से भीड़-भाड़ का चक्कर. इसीलिए हमने सोचा या सच कहूं तो उसने सोचा - जितना जल्दी उतना बेहतर.विसिटर पास लेकर वो वेटिंग एरिया मे बैठ गयी जबकि मैं समान वगैरा चेक-इन करने जाने लगा. अब वो यहाँ पर भी एक स्प्रिंग बैलेंस ले कर आयी थी ताकि सारे समान वेट लिमिट मे हों.

सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद मैं उसके पास आकर बैठ गया। सिक्युरिटी चेक पर जाने से पहले मेरे पास सिर्फ़ कुछ घंटे थे. हमने फ़ूड कोर्ट जाकर कुछ पेट-पूजा करने का फ़ैसला किया. पर मेरे मन मे इस दौरान सिर्फ़ एक ही बात चल रही थी के पता नहीं अब मैं उससे कब मिल सकूंगा.


"हे चैम्प! क्या बात है? " चैम्प, इस शब्द को वो कुछ खास दिनों के लिए बचा कर रखती थी। वरना वो 'चिंटू','डम्बो', 'बूजो', 'एप-मैन', इन शब्दों से काम चलाती थी। या फ़िर कभी-कभी जब वो बड़े गुस्से मे होती तो 'बेवडा' या 'सुट्टा' इन शब्दों से भी परहेज़ नहीं करती थी.

"मैं नहीं जाऊँगा," मैंने एक झटके मे कहा।

"मैं भी नहीं चाहती के तुम जाओ..."

"नहीं तुम समझ नहीं रही हो!!", मैंने अधीर हो कर कहा। अब मैं और बर्दाश्त नहीं कर सकता था. " मैं तुम्हारे बिना जीने की सोच भी नहीं सकता." मैंने बड़े ही ब्लंट(blunt) अंदाज़ मे सब कह दिया या कहूं के बक दिया.

वो मुझे घूर रही थी। उसकी आंखों में अचरज, आश्चर्य या पता नहीं क्या था, खैर वो जो भी था मैं उसे पढ़ नहीं सका.

"आई ऍम मैडली इन लव विद यू, स्मिता !!"

उसके होठों से एक आवाज़ निकली, वो रोना था या हँसना ये आजतक मैं नहीं समझ पाया। शायद दोनों का मिश्रण. "वैसे बेवडे तूने भी क्या मस्त टाइम चुना है मुझे ये बताने का?" एक आंसू उसकी आँख से ढुलक गया.

"कबसे तुम्हे ऐसा लग रहा है," उसने ये वाक्य ऐसी आवाज़ मे कहा जो मैंने आज तक उसके मुह से नहीं सुनी थी। उसका गला भर आया था, आवाज़ भर्रा रही थी, उसके चेहरे पर तो मुस्कराहट थी लेकिन उसकी आंखों मे आंसुओं का सैलाब साफ उमड़ रहा था. मुझे समझ नहीं आया इसका क्या मतलब निकालूँ.

"उसी दिन से जिस दिन तुमने मेरे लिए केक बनाया था।"

वो हंसने लगी "बस इतने से मे ही प्यार हो गया, किसी ने सही कहा है मर्द के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता है! होल्ड इट! एक महीना, और तुमने एक महीना इंतज़ार किया। तुम ही तो हमेशा कहते थे के जिस दिन तुम्हे कोई लडकी पसंद आयेगी तुम एक सेकंड नहीं लगाओगे उसे बताने में." अब वो खुल कर मुस्कुरा रही थी, पर उसकी आंखें नम थीं.

"मैं कनफ्यूसड था। पता नहीं तुम कैसे रेअक्ट करोगी! असल मे तो मुझे अभी भी तुम्हारा रिएक्शन समझ नहीं आया. मुझे लगा इससे हमारी दोस्ती बिगड़ सकती है. और वैसे भी तुम्हें प्रपोज़ करने वाले लड़कों का क्या होता है ये तो मैं देख ही चुका था."


"दैट्स बिकोज़ आई ऍम इन लव विद यू, यू ओवरग्रोन ईडीयट!! " उसने यू पर इतना ज़ोर दिया की मेरे पूरे बदन मे एक सनसनी सी दौड़ गयी। "क्या?" मैंने कभी सोचा भी नहीं था की वो ऐसा भी कुछ कह सकती है. वो भी मुझसे प्यार करती थी - मुझसे-मुझसे, मैंने अपने मन मे न जाने कितनी बार मुझसे मुझसे कह डाला, "और तुम्हें कब पता चला की तुम्हें मुझसे प्यार है? "


"उस दिन से जिस दिन से तुमने मेरा सूटकेस उठाने के लिए ऑफ़र किया था।"



"अच्छा, इतने टाइम से तुम्हें प्यार है मुझसे और तुम मुझ पर इल्जाम लगा रही हो कि मैंने एक महीना वेट किया? तुमने कभी क्यों कुछ नहीं कहा?"


"तुम लड़कों को लड़की का दिमाग पढ़ना नहीं आता! और न कभी आयेगा॥"


"तुम लड़कियों के दिमाग मे क्या है, दिल मे क्या है और ज़बान पे क्या है ये तो ख़ुद आइंस्टाइन नहीं बता सकता "


"आइंस्टाइन तुम्हारी ही तरह उल्लू था। कैसानोवा बनो" यह कह कर वो मेरे शर्ट के बटन को पकडे-पकडे और करीब आ गयी.


"आई लव यू " मैंने उसके कान मे धीमे से कहा.

"आई नो "


और मेरे प्यारे दोस्तों फ़िर जो हुआ वो किसी जादू से कम नहीं था। हमारे बीच बस हमारी हथेलियों का फासला था. हमारे बीच फिसिकल कॉन्टैक्ट का मतलब आज से पहले था जैसे कुछ पिटाई-शिटाई, घूंसे खाना, हाई फाइव इत्यादि इत्यादि. पर आज मुझे पता चला कि इस वास्तव मे ये तगड़ा धूंसा मरने वाली लड़की के हाथ कितने कोमल हैं, कितने मासूम हैं. और उसकी आंखें जिनमे शैतानी के अलावा कितना प्यार भी छिपा है. आज मैंने जाना कि आज मैं एक दम नई स्मिता से रूबरू हूँ. इस लड़की की आंखें इस पल को समेट कर सहेजना चाहती हैं और हांथों में ऐसा कम्पन की जैसे इसके बाद वो कुछ और छूना ही नहीं चाहते. माहौल को गुनगुना होते और मुझे बेशब्द हुआ देख उसने एक शिगूफा छेड़ा --

"तुम्हें पता है प्रेम," उसने ज़िंदगी मे पहली बार मेरा नाम ले कर मुझे पुकारा था, और मैं कसम खा कर कह सकता हूँ की मेरा नाम सुनने मे इतना अच्छा मुझे पहले कभी नहीं लगा। आज मुझे मेरे नाम पर गर्व था."तुम्हें पता है प्रेम, आज क्या है?" "क्या?" मैं घबरा गया की कहीं कुछ भूल तो नहीं गया.


"आज हमारी पहली डेट है॥" उसकी मुस्कराहट का ये रूप मैंने पहले कभी नहीं देखा था।


"मैं सही मे नहीं जाना चाहता। "


"चिंता मत करो मैं १-२ महीने मे आ रही हूँ?"


"कैसे dependent VISA? मतलब अभी यहीं शादी कर के मुझे भगा ले जाओगी!!"


"नहीं आई ऍम जोइनिंग MS इन NJ "


"क्या ? तुमने बताया क्यों नहीं? कब? कैसे? "


"वेल, ये तो मुझे श्योर था नहीं कि जाने से पहले प्रपोस कर दोगे? और फ़िर मैं तुम्हें गोरी मेमों का चारा कैसे बनने देती। तो मैंने भी सोचा स्कोर का कुछ मिस्यूस किया जाए. और इससे अच्छा मिस्यूस क्या होगा कि तुम्हारे साथ रहूँ. तुम्हारी आंखों के सामने टू बग यू" उसकी आंखों मे खुशी नाच रही थी, और मैंने मैदान मार लिया था.


"अच्छा सुमि आज मेरी ज़िंदगी का सबसे खुशी भरा दिन है। पर तुम इसे और भी बेहतर कर सकती हो? वो कमाल सिर्फ़ तुम्हारे हाथों मे है..."


"कैसे?"

"काश! तुम कुकिंग भी उसी तरह सीख लो जिस तरह केक बनाना सीखा? "


और फ़िर मुझे घूँसा खाने से कौन रोक सकता था.............
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22 comments:

Unknown said...

HAR KISI KO MUKAMMAL JAHAN NAHI MILTA KISI KO ZAMEEN NAHI MILTI KISI KO AASMAAN NAHI MILTA
"LOOKING FOR THE PERFECTION IS THE BIGGEST LIE A HUMAN CAN TOLD TO HIS **********"

Anonymous said...

"LOOKING FOR THE PERFECTION IS THE BIGGEST LIE A HUMAN CAN TOLD TO HIS **********"
trying to decipher the "**********" too tuf 2 crack

voodoo! said...

awesum dude ....!!! i m waiting for the full story..!!mus say ..u r grt wid the pen ..!!{or keyboard..}watvea [:P]....keep rockin !!

Pushpendra said...

are sir, development main to story bug free thi par UAT main bahut bada bug aaya!! :D

हरिमोहन सिंह said...

तुम तो गजब लिख रहे हो ।
सच में इन्‍तजार रहेगा बाकी कब लिखोगे ।

Anonymous said...

maan prasan ho gaya sir aapki kahani padh ke.... just want to ask a question (ye real hai ye fiction....)

Bloggy said...

@sourabh
agar tum sourabh haldar ho to maar khaoge [:)]
sale tumhe to sab real fiction maloom hain

pushpak said...

Gurudev aapki story padh ke aisa laga jaise main 10th class ka student hoon aur pehli baar kisi ke love ker raha hoon ...

maine to apne aap ko hi rakh diya tha

story mein ... it is good to see happy ending in the end ....

Ramesh Nair said...
This comment has been removed by the author.
Ramesh Nair said...

Really a gr8 story and a gr8 writer too. Really awesome story man plz can you post it at
http://www.dreams4desires.com/letstalk/viewforum.php?f=22
it would be lots of helping for others too. waiting for your presence at our forum.

DUSHYANT said...

bahut khoob,jeeo,isme jo aapkaa h shayad wahee ho jisne ise itnaa sundar banaya h

Sajeev said...

बढ़िया है भाई.....किरदारिकरण खूबसूरत है..... कहानी सरल होकर भी बंधे रखती है... बधाई

Anonymous said...

Hello. And Bye.

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