पता नहीं क्यों?
ये कहानी है और इसे कहानी की तरह पढ़ें. न तो मैं बदकिस्मत हूँ और न ही किसी बदकिस्मत को जानता हूँ. इसके सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक हैं. यदि मेरे परिचितों में से किसी को ये कहानी उसकी या मेरी ज़िंदगी से प्रेरित लगती है तो ये मात्र एक विडम्बना है और उसकी बदकिस्मती. ज्ञानी लोग ऐसी बदकिस्मतियों को इत्तेफाक भी कहते हैं.........
कभी कभी मुझे लगता है पता नहीं क्यों मैं सिर्फ़ हारने के लिए बना हूँ? मतलब भला बताइए दोष आख़िर दें तो किसे दें? भगवान को कोसें कि किस्मत को भला-बुरा कहें या फ़िर दोष मढ़ दें अपने आस-पड़ोस, यार-दोस्त, प्रिय-प्रियदि आदि-इत्यादि पर.
कभी-कभी मेरे दिल मैं ख़याल आता है कि कोई इतना बदकिस्मत हो भी कैसे सकता है मतलब कोई upper limit नाम की भी चीज़ होती है. लगता है भगवान ने मेरा ये वाला counter infinite सेट कर दिया है. बेटा लगाये रहो लूप पर लूप फेल नहीं होने का. निश्चित ही भगवान ने जिस coder को मेरी किस्मत लिखने का contract दिया होगा उसकी उस दिन की बिलिंग नहीं हुई होगी. या फ़िर ये कोई inherent legacy bug था लो टेस्टिंग तो सारी पास कर गया पर प्रोडक्शन में आकर फ़ेल हो गया और बदकिस्मती से वो प्रोडक्शन-environment मेरी ज़िंदगी है.
इंतिहा ये है की अगर मैं दौड़ में दौड़ भी न रहा हूँ तो भी हार जाता हूँ. क्यों गया देखने साले ले भुगत?मतलब खेल रहें हैं फ्रांस-जर्मनी, मैच हो रहा है हजारों मील दूर, हारता कौन है मैं? ले बे और देख टी.वी?
कुछ लोग अपने पाँव पर कुल्हाडी मारते हैं, कुछ महान लोग कुल्हाडी पर पाँव मार लेते हैं. मैं भैय्या क्या करता हूँ सुनो. पहिले मैं अपने पाँव पर लगा सेफ्टी कवर काटता हूँ. फ़िर लकडी ढूंढता हूँ. कहीं नहीं मिलती तो जंगल जाता हूँ सर फुटा, के हाँथ टुटा के वहां से लकडी लाता हूँ लोहे का जुगाड़ करता हूँ. धौंकनी पर बैठ कर लोहारमय हो कर दिन रात एक कर के एक कुल्हाडी बनाता हूँ फ़िर बड़े प्रेम से धीमे-धीमे अपना पाँव काटता हूँ की बेटा पाँव तो कटे ही कटे पर नासूर भी बने.
मतलब बताइए की ये कहाँ का न्याय है? स्कूल से लेकर कोलेज तक, घर से लेकर मोहल्ले तक नौकरी से ले कर छोकरी तक जब कुछ बुरा होना होता है पता नहीं कैसे मैं उसे ढूंढ लेता हूँ.
मेरे पिताजी की मोटर-साईकिल, चम्-चमनुआ झकास एक दम बारह साल से फटाफट दौड़ती थी. छींक तक नहीं आयी उसे कभी, या कभी तेल तक ज्यादा पिया हो. लेकिन उसे ख़राब होना था .. और मौत भी लिखी थी उसकी उसकी उस दिन जिस दिन हमारा जे.ई.ई. मेंस का पेपर था. कभी नहीं बैठे हम उस मोटर-साईकिल पे. लेकिन पता नहीं क्या सूझी उस दिन "मम्मी आज ये ले जाता हूँ. पापा की बाइक लक्की है!!" ले बेटा लक!!
कृमशः..
2 comments:
Bhaiya ji koi ek kahani to poori kar do yar.. plz baat ko samjho na "PATA NAHI KYUN DHAIRYA KI INTHAN LE RAHE HO. PATA NAHI KYA Sochte ho Ki dekhen Kya kar lenge ye padhne wale. PATA NAHI KYUN itna tarsate ho. PATA NAHI KYUN AAKHIR KYUN..??"
hi hi hi
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