इस समंदर में तो सूखी नदियाँ ही मिलेंगी,
बर्फ उन पहाड़ों पर पिघली कहाँ होगी।
कल फूल मुरझाये थे, आज काँटे भी झड़ गये,
खुदा जाने वो आख़िरी तितली कहाँ होगी।
पेट की आग ने हर चिंगारी को बुझा देना था,
फिर चीख इंकलाब की निकली कहाँ होगी।
अब बटेर चुक गये हैं, पर इंसान बहुत हैं,
फिर शिकारियों ने अपनी आदत बदली कहाँ होगी।
हमेशा से इसने घर, दुकाँ और खेत ही जलाए हैं,
गिरे जो ज़ालिमों पर वो बिजली कहाँ होगी।
कलम को ताक़तवर बताना, हर खूँखार की साज़िश थी,
वो अम्नपसंद थी, म्याँ से निकली कहाँ होगी।
आज रात भी भूखे आमिर की अप्पी घर नहीं लौटी,
मुझे मालूम है वो मासूम फिसली कहाँ होगी।
..........................................सुप्रेम त्रिवेदी "बर्बाद"
2 comments:
Bhaiya Ji Kya khoob Likhte ho yar.. Tarste rahte hain bus padhne ko. Bus Padh ke lagta hai ki yar yahi baat to dil mein thi bus kah nai sake..
"Khoob (Bahut achha) Likhte ho KHOOB (Thoda Jyada) Likha Karo..!!"
bahut sundar....is kalam ko aur uske sipahi ko sat sat pranam
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