Saturday, May 10, 2008

साँकल तोड़ कर सारे, मैं उड़ कर पार जाता हूँ

कहीं वादे कहीं फितरत कहीं आँसू कहीं गुरबत,
मैं हांथों मे पकड़ चलता हूँ, चल कर पार जाता हूँ।
वो आंखें घूरती मुझको, निगाहें चीरती जातीं,
मैं लड़ता रात भर, दिन भर न थक कर हार जाता हूँ।

रंगों मे चमक बाकी, सितारों मे दमक बाकी,
अँधेरा जीत क्यों ले फ़िर, सफर की जागती बाजी,
फलक का चीर दे सीना, ये मुक्ता हाथ के छाले,
लड़ना ही है गर नियती, मैं अबकी बार जाता हूँ

रोने से नहीं रुकना, या गाने से नहीं रुकना,
टूटन में है जय मेरी, झुकाने से नहीं झुकना,
है टहनी से बंधा रहना, या पत्ता टूट कर उड़ना,
साँकल तोड़ कर सारे, मैं उड़ कर पार जाता हूँ।

दवा है गर दवा देना, दुआ है गर दुआ देना,
घावों पर लगा सकना, तो मरहम तर लगा देना,
मगर न वास्ता देना न आँसू का न खूनों का,
ये रक्खो फूल-गुल-दामन, मैं ले तलवार जाता हूँ।

................................. सुप्रेम त्रिवेदी "बर्बाद"

3 comments:

Ankur Chandra said...

dost..kasam se..hila ke rakh diya..jhakjhor diya aatma ko..

डाॅ रामजी गिरि said...

"ये रक्खो फूल-गुल-दामन, मैं ले तलवार जाता हूँ।"

लाज़वाब अंदाज़ है अभिव्यक्ति का--

pratap singh said...

Dr.Ramji Giri ke comment par comment karna chahoonga ke

"laajawab andaaz toh bahut pehele se hai is vyakti ka..."
bas rang naye naye dikha raha hai.

Suprem bhai kavita zordaar hai...
aisa likha hai ke sonchne ka man hee nahin karta...bas padhte raho..