आंसू झर-झर बह निकले हैं,
सन्नाटों में साँस रुकी है,
गला रुन्ध्र है लहू झलकता
और मेरी आवाज़ दबी है
अंजानो के इस जंगल में
सारे साथी रात सो गए
मुट्ठी भींची, शक्ति समेटी
तब तक मेरे हाथ खो गए
दीपक दिखता नखत चमकता
सन्नाटों में साँस रुकी है
गला रुन्ध्र है लहू झलकता
और मेरी आवाज़ दबी है.
सुन सकते हो सुनते जाओ
रुक सकते हो रुकते जाओ
हाथ बढ़ाता हाथ न आता
मैं कुछ चलता कुछ रुक जाता
कहने सुनने के झंझट में
जो कहनी थी बात रुकी है
गला रुन्ध्र है लहू झलकता
और मेरी आवाज़ दबी है.
1 comment:
बड़ी संजीदगी से लिखी कविता. धन्यवाद.
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