Wednesday, July 15, 2009

फिर रो-रो के दुपट्टे को भिगोता क्यूँ है.

मैं तो आखिरी ख़त भी वहीं छोड़ आया था,
फिर ये कत्ल का इल्जाम मुझ पे लगा क्यूँ है.

आवाजें तो दफ्न हो गईं थी सब उस दिन,
गली के आखिर में फिर ये शराबा क्यूँ है.

सो गयी रात, ताउम्र, सुन कर वो आखिरी हरफ,
बेशर्म चाँद आज फिर निकला क्यूँ है.

दुहाई को रिश्तों की कीमत अदा तो कर दी थी पूरी,
सारा शहर फिर तिजारत पे निकला क्यूँ है.

वो कहता है की बाकी नहीं है याद कोई सीने में,
फिर रो-रो के दुपट्टे को भिगोता क्यूँ है.

.....................................................suprem trivedi "aabaad"

3 comments:

Ramesh Nair said...

Hamesha ki tarah bahut pyari poem hai. Kab se wait kar rahe the sir ji ki kab likhoge.. waiting for next post.

pawan said...

जनाब दिल के जज्बाद सीने को छ्लनी कर गये ...

उर्दू के कुछ शव्दों को इतनी नफ़ाशत के साथ कविता में पिरोया है कि एक नई ही विधा पढने को मिली ।

सराहनीय ॥

Bloggy said...

dhanyavaad