Saturday, December 18, 2010

होने तक

किसी ने ज़ुल्फ़ को शाम कहा, किसी ने आँखों को समंदर,
मैं तुझको तुम ही लिख न सका, ये कलम फ़ना होने तक.

शिकायत चोर ने ज़ाहिर से की, सिपाही ने कोतवाल से,
वो मुझपे इलज़ाम ही लगाते रहे, फैसला होने तक.

शाम फिर दिन ढले ही आई, डाक-घर की बत्तियां भी जलीं,
मैं कुरेद कर ज़ख्म ही सुखाता रहा, सुबह होने तक.

जन्नत में सवाल बहुत हैं, दोज़ख में जगह कम है,
मुझे सलीब* पर ही रहने दो, आसरा होने तक.

3 comments:

Jeetendra said...

"किसी ने ज़ुल्फ़ को शाम कहा, किसी ने आँखों को समंदर,
मैं तुझको तुम ही लिख न सका, ये कलम फ़ना होने तक."

Wah Bada gahra mara hai suprem bhaiya iss bar kasam se, Dil kat kar rakh diya hai. Maja aa gaya.!!

Unknown said...

"शाम फिर दिन ढले ही आई, डाक-घर की बत्तियां भी जलीं,
मैं कुरेद कर ज़ख्म ही सुखाता रहा, सुबह होने तक."

Suprem bhai ek baat batao, yaar tum itna dard laate kaha se ho?

Bloggy said...

@mukesh bahi .. Koi dil ke chhalon ko shayri kahe to dard nahi hota, dard to tab hota hai jab log wah wah karte hain