Thursday, November 30, 2006


आख़िरी इल्तिजा




बस इक आख़िरी इल्तिजा है तुमसे,
जो न दे सका अब तक वो ले जाना,
उस ख़ून के क़तरे हैं उस रूमाल में,
जो आँखों से टपका था, आँसू बन के ।
बस वहीं सिराहने पे रक्खा है,
ज़रा प्यार से पत्थर हटाना ।

इन्तिहा

तुम पूछते हो मेरे प्यार की इन्तिहा क्या है,
चाह कर भी मैं कुछ कह नहीं पाता हूं ।
जब से तुम वो तस्वीर ले गये हो बन्द आँखों से,
खोल कर आँखें मैं रह नहीं पाता हूं ।
वो कहते हैं के तू कोई बन्धा तो है नहीं,
मै तो दरिया हूँ, फिर क्यूँ बह नहीं पाता हूँ ।

Wednesday, November 29, 2006

नुमाइश

कल इन्सानों की नुमाइश होगी, जज़्बातों का बाज़ार सजेगा,
अपने-अपने बरतन लाना, लहू वहाँ इफ़रात मिलेगा ।

जान मिलेगी, आन मिलेगी, अरमानों का हाट सजेगा,
अपने-अपने कपड़े लाना, जिस्म वहाँ इफ़रात मिलेगा ।

बोली देना दाम मिलेंगे, अकबर होगा राम मिलेंगे,
अपने-अपने मज़हब लाना, ख़रीदार इफ़रात मिलेगा ।

हवा भी लाना साँस मिलेगी, पानी लाना प्यास मिलेगी,
अपनी-अपनी लाशें लाना, चिता वहाँ इफ़रात मिलेगी ।

इज़्ज़त लाना अस्मत लाना, उजियारे का हाट सजेगा,
अपने-अपने विषधर लाना, ज़हर वहाँ इफ़रात मिलेगा ।

भूखें लाना, ग़ुरबत लाना, जंगों का बाज़ार सजेगा,
अपनी-अपनी सरहद लाना, मुल्क़ वहाँ इफ़रात मिलेगा ।

Tuesday, November 28, 2006

चंद नये शेर

1.
ये मेरी लाश में धड़कन कैसी,
शायद वो आया है जनाज़े में मेरे।
उससे कहना वक्त़ से घर चला जाये,
लोग ख्वामख्वाह मुर्दे को बददुआऐं देंगे।
2.
जो दफ्ऩ करना मुझे, तो उल्टा लिटाना,
किसी ने कसम दी है, "कभी मुँह न दिखाना"।

Sunday, November 26, 2006

मगर जो कहनी है, वो बात कहाँ से लाओगे़

मेरे हिस्से की हवा तो छीन लोगे जबरन,
मगर अपने हिस्से की साँस कहाँ से लाऒगे।

रख लोगे घर मे समंदर को भरकर,
पीने के लिये जो ज़रूरी है, वो प्यास कहाँ से लाओगे।

मानता हूँ जला लोगे दुनिया के तामाम चिराग,
अंधेरा जो फैलाती है, वो रात कहाँ से लाओगे।

चलो माना कि हज़ार जिरह कर लोगे,
मगर जो कहनी है, वो बात कहाँ से लाओगे़।

सुप्रेम त्रिवेदी "विद्रोही "

Saturday, November 25, 2006

सर्दी का पता तब लगा, जब ख़ून अपना जम गया.

तोड़ कर घड़ियाँ हम समझे, कि वक़्त थम गया.
पिछड़े जो ज़माने से, तो जाना कि अपना हम गया.

भर भर के कटोरों से सीचीं थी फ़सलें कभी,
आज पड़ समंदर का पानी भी तोड़ा कम गया.

बैठ के अंगारों पे समझते रहे कि गर्मी है,
सर्दी का पता तब लगा, जब ख़ून अपना जम गया.

सुप्रेम त्रिवेदी "विद्रोही"

गिरा तो आँसू, बचा तो मोती है

पतझड़ के झरे पात शाख रोती है,
बुझे सूरज की कहाँ धूप होती है.

लील कर उजाला जो रात सोती है,
हर अंधेरे मे सवेरे की बात होती है.

जो उजड़े चमन मे बरसात रोती है,
गिरा तो आँसू, बचा तो मोती है.

सुप्रेम त्रिवेदी "विद्रोही "

Friday, November 24, 2006

पानी

सहेज कर रखे थे जो कुछ एक पन्ने, दूर बहा ले गया ये ज़ोर सा पानी.
समेटा था जिसे युग- युग से टहल कर , चुरा ले गया, ये चोर था पानी .
बार- बार उठा कुछ बोलना चाहा, मुह बंद कर गया मुह- ज़ोर था पानी.
याद दिलाता रहा हज़ार बार- बार, भूल गया सब कुछ कमज़ोर था पानी.
घबरा के फेरी मैने नज़रें इधर उधर, भर गया आँखों में ज़ार- ज़ार पानी.
सोचा मैने भर लूं बटोर के बर्तन मे, माँग बैठे तब सब उधार- उधार पानी.
सुप्रेम त्रिवेदी "विद्रोही "

वक़्त है हर शेह को सियासत सिखा रहा है

वक़्त है हर शेह को सियासत सिखा रहा है,
डरता था जो आग से वोह बम बना रहा है.
छिप जाता था जो आँचल मे देख के रंग- ए- सुर्ख़,
देखो लहू के समंदर मे वो गोते लगा रहा है.
इस माहौल को किया है मैने ही ग़म- गीन,
वोह देखो मेरा चाँद समंदर मे जा रहा है.
चले जाते थे हम पार निशानों के उड़ उड़ कर,
मुश्किल से रेंगते हैं वोह सेहर याद आ रहा है.
फैलाए थे मैने पाँव चादर को नाप कर,
अब क्या करूँ वही पैर जब चादर चबा रहा है.....
वक़्त है हैर शेह को .....
.......................................सुप्रेम त्रिवेदी "विद्रोही "