Wednesday, September 14, 2011

खबरों का इंतज़ार था, वो अब तक नहीं आयी

वाकिये तो यूँ शब भर होते किये तमाम,
खबरों का इंतज़ार था, वो अब तक नहीं आयी.

मसूद थे पर इस बात का इम्काँ  चलो टूटा,
इस बार वो बारिश हुई, घर तक चली आयी.

जुगनुओं की तलाश में भटका किये दिन भर,
आफताब की पहली किरन फिर दिन ढले आयी.

किताबें पढ़ने वालों से ख़ासी, नाखुश थी ज़िन्दगी,
फटे सफ़े के सवालों को वो पहलो पहल लाई.

मस्जिद की सब ईंटें चुकती गयीं वली,
मेरे आंगन में ये दीवार, बढ़ती चली आयी.


-- विद्रोही भिक्षुक