Saturday, May 5, 2007

दे दो मेरे पन्ने दो-चार

दे दो मेरे पन्ने दो-चार, जीवन का वह मृत अधिकार,
कब तक कहाँ करूँ प्रतिकार, कौंधे कैसे कौन विचार,
खोज़-खोज कर खोऊँ कब तक, खो कर कैसे करूँ प्रचार,
बीन-बीन कब तक बिखराऊँ, सुनता कौन मूक ऊच्चार,
फिर खोए पन्ने दो-चार, जीवन का वह मृत अधिकार..............

छीनूँ कैसे बाँट बाँट कर, बाँटूं किसको छीन छीन कर,
क्या माँगूं मैं हाथ जोड़ कर, माँगूं जब जब जाता हार,
हार के डर से रण को त्यागूँ, या पहनूँ मैं प्रण का हार,
हार के जीतूँ जीत के हारूँ क्यों अड़ता मैं बारम्बार,
फिर पाये पन्ने दो-चार, मरने का जीवित अधिकार...........
...........Suprem Trivedi "barbaad"

कुछ नये शेर (kabhi kabhi ulta seedha bhi likhna chaiye)

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मैं सबको साथ ले कर चला था जानिबे मन्ज़िल,
मगर लोग कटते गये, मैं अकेला रह गया।

"कौन" कहता है कि आसमाँ में सुराख़ नहीं हो सकता,
"कौन" एकदम सही कहता है, उसने फिज़िक्स पढ़ी है।

बस एक ही उल्लू काफी है, बरबादे गुलिस्ताँ करने को,
हर शाख़ पे उल्लू बैठे हैं, ये मिसयूटिलाइज़ेशन ऑफ उल्लू है।

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रोते-रोते शाम सी हो जाती है

रोते-रोते शाम सी हो जाती है,
उम्र यूँ ही तमाम सी हो जाती है,
जब भी आना मेरे घर, तो रात में आना,
दिन में ये गलियाँ भी,
बदनाम सी हो जाती हैं।
...........Suprem Trivedi "barbaad"