अभी कुछ दिनों पहले मैंने एक हिन्दी सनीमा देखा था, श्री अजय देवगन अभिनीत 'द मिसिंग सन्डे' वो महिला कौन थी उन साथ ये तो मैं भूल गया और याद करने की ज़हमत भी नहीं उठाऊंगा। खैर दिखने में भी वो किसी हॉलीवुड मूवी की बड़ी ही घटिया नक़ल थी. पर वो कहते हैं न असली जौहरी कांच को भी तराश दे तो हीरे मात खा जाएं. खैर तो इस अजीमो-तरीम का कमाल देखिये की ढूंढ निकाली उसने एक ऐसे मिस्सिंग सन्डे की कहानी जो साल दर साल कहीं दब-दबाकर छिप-छिपाकर बैठ सा गया है या खो-खुवाकर गुम सा हो गया है.ये कहानी है मेरे नायक के उस मिसिंग सन्डे या सही कहूं तो ये कहानी कम कुछ संस्मरण सा ज्यादा है, ये सन्डे कहीं गुम हो गया है यूंही कुछ दस बारह एक साल पहले.ये उस ज़माने का सन्डे है जब सुबह की शुरूआत Hotmail पर आयी किसी Nudge से नहीं होती थी,जब सुबह की शुरूआत 5500 W के PMPO वाले तथाकथित Voice Box के autostart प्रोग्राम से नहीं होती थी,जब सुबह की शुरुआत रात के saved game को सुबह पूरा करने की जल्दी मी नहीं होती थी,ये उस ज़माने का सन्डे है जब आप ब्लूटूथ हैण्डसफ्री लगा कर रात भर अपने ढेर सारे प्रिय लोगों से बात नहीं करते थे, और सुबह जगाने के लिए आप के मोबाइल में ग्यारह मिस्ड काल्स नहीं होती थीं. जब सुबह पाँच बजे रात नहीं होती थी, जब दोपहर १२ बजे दिन नहीं होता था.ये सन्डे है उस ज़माने का जब सन्डे को दिनों के राजा होने का रुतबा प्राप्त था. जब सन्डे की सुबह का इंतज़ार शनिवार की रात को ही शुरू हो जाता था. सुबह होती थी दूरदर्शन की जनसंख्या की घड़ी को देखकर. रंगोली ही हमारा म्यूसिक-सिस्टम था और हेमा मालिनी हमारा पीक म्यूसिक पावर आउटपुट. जब एक रुपिया लेकर हम विडियो-गेम्स पार्लर में घंटों बैठ अपनी बारी का इंतज़ार करते थे, और मारियो की चार चांस में आठवें की रानी लगा कर ही चैन लेते थे. और हमें लगता की जैसे सन्डे इसी के लिए बना है.ये उस ज़माने का सन्डे है जब हम PCO मे बैठ कर सबके चले जाने का इंतज़ार करते थे और फ़िर डरते डरते चुपके से फ़ोन मिलाते थे. उधर से बाप या भाई की आवाज़ सुनकर सकपका कर चोंगा क्रेडिल पर रख देते थे. तब तक तीन में से दो रुपये ख़राब हो चुके होते थे. और आख़िरी एक रुपये के साथ कोई रिस्क लेने की बजाये हम PCO पर बैठी लडकी से उसे बुलाने को कहते थे. जैसे ही वो दूसरी तरफ़ लाइन पर आती तो वो रटे-रटाये शब्द उसे कहने थे -- "पिछली दो दफा भी तुम्ही थे न, तुम मरवाओगे के किसी दिन॥ " बस बन जाता था हमारा सन्डे और हमें लगता की जैसे सन्डे इसी के लिए बना है.ये उस ज़माने का सन्डे है जब हम पागलों की तरह भरी दोपहरी मे धूल-धुआं-धक्कड़ मे घंटों बेतहाशा क्रिकेट खेलते थे. जब हमें रिंकू, मोंटी, राजन, और डब्बू X-BOX 360 से ज्यादा प्यारे थे.......
क्रमशः ......
..........इंतज़ार करें पूरा होने का